अंतिम दिनों का मसीह - सर्वशक्तिमान परमेश्वर

उपाधियों और पहचान के सम्बन्ध में

यदि तुम परमेश्वर द्वारा उपयोग के लिए उपयुक्त होने की कामना करते हो; तो तुम्हें परमेश्वर के कार्य के बारे में अवश्य जानना चाहिए; तुम्हें उस कार्य को अवश्य जानना चाहिए जो उसने पहले किया था (नए और पुराने नियमों में); और, इसके अतिरिक्त, तुम्हें उसके वर्तमान कार्य को अवश्य जानना चाहिए। कहने का तात्पर्य है, तुम्हें 6,000 वर्षों के परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों को अवश्य जानना चाहिए। यदि तुम्हें सुसमाचार फैलाने के लिए कहा जाता है, तो तुम परमेश्वर के कार्य को जाने बिना ऐसा करने में समर्थ नहीं होगे। कोई तुमसे इस बारे में पूछ सकता है कि बाइबल, पुराने नियम, और उस समय यीशु के कार्य और वचन के बारे में तुम लोगों के परमेश्वर ने क्या कहा है। यदि तुम बाइबल की अंदरूनी कहानी नहीं बता सकते हो, तो वे आश्वस्त नहीं होंगे। शुरुआत में, यीशु ने अपने चेलों के साथ पुराने नियम के बारे में बहुत बात की थी। हर एक चीज़ जो उन्होंने पढ़ी वह पुराने नियम में से ही थी; नया नियम तो यीशु को सलीब पर चढ़ाये जाने के अनेक दशकों बाद लिखा गया था। सुसमाचार फैलाने के लिए, सैद्धान्तिक रूप से तुम लोगों को बाइबल के भीतर की सच्चाई को, और इस्राएल में परमेश्वर के कार्य को, कहने का तात्पर्य है कि यहोवा के द्वारा किये गए कार्य को समझना चाहिए। और तुम लोगों को यीशु के द्वारा किये गए कार्य को भी समझना है। ये ऐसे मामले हैं जिनके बारे में सभी लोग सर्वाधिक चिन्तित होते हैं, और कार्य के उन दो चरणों की कहानी ही वह है जिसे उन्होंने नहीं सुना है। सुसमाचार को फैलाते समय, पहले पवित्र आत्मा के वर्तमान कार्य की बात को एक तरफ रख दें। कार्य का यह चरण उनकी पहुँच से परे है, क्योंकि जिसकी तुम लोग खोज करते हो वह ऐसा है जो सब से उत्कृष्ट है: परमेश्वर का ज्ञान, और पवित्र आत्मा के कार्य का ज्ञान, और इन दोनों की तुलना में कोई भी चीज़ अधिक उत्कृष्ट नहीं है। यदि तुम पहले उसके बारे में बात करो जो उत्कृष्ट है, तो यह उनके लिए बहुत ज्यादा होगा, क्योंकि उनमें से किसी ने भी पवित्र आत्मा के द्वारा किये गए ऐसे कार्य का अनुभव नहीं किया है; इसकी कोई मिसाल नहीं है, और इसे स्वीकार करना मनुष्य के लिए आसान नहीं है। उनके अनुभव, पवित्र आत्मा के द्वारा कभी-कभार किये गये कुछ कार्य के साथ, अतीत की पुरानी बातें हैं। जो वे अनुभव करते हैं वह पवित्र आत्मा का आज का कार्य, या आज परमेश्वर की इच्छा नहीं है। वे अभी भी, किसी नई ज्योति, या नई चीज़ों के बिना, पुराने अभ्यासों के अनुसार कार्य करते हैं।


यीशु के युग में, पवित्र आत्मा ने मुख्य रूप से अपना कार्य यीशु में किया था, जबकि ऐसे लोग जो मन्दिर में याजकीय पोशाक पहन कर यहोवा की सेवा करते थे वे अटल वफादारी के साथ ऐसा करते थे। उनमें भी पवित्र आत्मा का कार्य था, परन्तु वे परमेश्वर की वर्तमान इच्छा को समझने में असमर्थ थे, और किसी नए मार्गदर्शन के बिना, पुराने अभ्यासों के अनुसार मात्र यहोवा के प्रति निष्ठावान रहते थे। यीशु नया कार्य लेकर आया था। जिन लोगों ने मन्दिर में सेवा की थी उनके पास नया मार्गदर्शन नहीं था, न ही उनके पास नया कार्य था। मन्दिर में सेवा करते हुए वे मात्र पुराने अभ्यासों को बनाए रख सकते थे; मन्दिर को छोड़े बिना, उनके पास कोई नया प्रवेश नहीं हो सकता था। नया कार्य यीशु के द्वारा लाया गया था, और यीशु अपने कार्य को करने के लिए मन्दिर में नहीं गया था। उसने अपना कार्य सिर्फ मन्दिर के बाहर ही किया था, क्योंकि परमेश्वर के कार्य का दायरा बहुत पहले ही बदल चुका था। उसने मन्दिर के भीतर कार्य नहीं किया, और जब मनुष्य वहाँ उसकी सेवा करता था, तो यह चीज़ों को वैसे ही बनाये रख सकता था जैसे वे थीं, और कोई नया कार्य नहीं ला सकता था। इसी तरह, धार्मिक लोग आज भी बाइबल की आराधना करते हैं। यदि तुम उनमें सुसमाचार को फैलाओगे, तो वे तुम्हारे साथ बाइबल के बारे में बहस करेंगे; और यदि, जब वे बाइबल के बारे में बात करते हैं उस समय, तुम्हारे पास वचन नहीं होते हैं, कहने के लिए कुछ नहीं होता है, तो वे सोचेंगे कि तुम लोग अपने विश्वास में मूर्ख हो। वे कहेंगे, "तुम बाइबल, परमेश्वर के वचन को भी जानते नहीं हो, और तुम कैसे कह सकते हो कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो?" तब वे तुम्हें तुच्छ जानेंगे, और यह भी कहेंगे, "चूँकि वह एक जिस पर तुम लोग विश्वास करते हो, वह परमेश्वर है, तो वह तुम लोगों को पुराने नियम और नए नियम के बारे में सब कुछ क्यों नहीं बताता है? चूँकि उसने अपनी महिमा को इस्राएल से पूर्व की ओर पहुँचाया है, तो वह इस्राएल में किये गए कार्य को क्यों नहीं जानता है? वह यीशु के कार्य को क्यों नहीं जानता है? यदि तुम लोग नहीं जानते हो, तो इससे साबित होता है कि तुम लोगों को बताया नहीं गया है; चूँकि वह यीशु का दूसरा देहधारण है, तो वह कैसे इन चीज़ों को नहीं जान सकता है? यीशु यहोवा के द्वारा किये गए कार्य को जानता था; वह कैसे नहीं जान सकता था?" जब समय आएगा, तो वे सब तुमसे ऐसे प्रश्न पूछेंगे? उनके सिर ऐसी चीज़ों से भरे हुए हैं; वे कैसे नहीं पूछ सकते हैं? जो लोग इस धारा के भीतर हैं वे बाइबल पर ध्यान केन्द्रित नहीं करते हैं, क्योंकि तुम लोग आज परमेश्वर के द्वारा किये गए कदम दर कदम कार्य से अवगत रहे हो, तुम लोगों ने अपनी अपनी आँखों से इस कदम दर कदम कार्य को देखा है, तुम लोगों ने कार्य के तीन चरणों को स्पष्ट रूप से देखा है, और इसलिए तुम लोगों को बाइबल को नीचे रख देना और इसका अध्ययन करना बन्द कर देना चाहिए था। परन्तु वे इसका अध्ययन नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें इस कदम दर कदम कार्य का कोई ज्ञान नहीं है। कुछ लोग पूछेंगे, "देहधारी परमेश्वर के द्वारा किये गए कार्य और अतीत के भविष्यद्वक्ताओं और प्रेरितों के द्वारा किये गए कार्य में क्या अन्तर है?" दाऊद को भी प्रभु कहकर पुकारा गया था, और उसी प्रकार यीशु को भी; यद्यपि उन्होंने जो कार्य किया वह भिन्न था, फिर भी उन्हें एक जैसे ही नाम से पुकारा गया था। तुम क्यों कहते हो कि उनकी पहचान एक जैसी नहीं थी? जिसकी यूहन्ना ने गवाही दी थी वह एक दर्शन था, ऐसा दर्शन जो पवित्र आत्मा से भी आया था, और वह उन वचनों को कहने में समर्थ था जो पवित्र आत्मा ने कहने का इरादा किया था; तो यूहन्ना की पहचान यीशु से भिन्न क्यों है? यीशु के द्वारा कहे गए वचन परमेश्वर का पूरी तरह से प्रतिनिधित्व करने, और परमेश्वर के कार्य का पूरी तरह से प्रतिनिधित्व करने में समर्थ थे। जो यूहन्ना ने देखा वह एक दर्शन था, और वह परमेश्वर के कार्य का पूरी तरह से प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ था। ऐसा क्यों है कि यूहन्ना, पतरस, और पौलुस ने बहुत से वचन कहे—जैसे यीशु ने कहे थे—फिर भी उनके पास यीशु के समान पहचान नहीं थी? मुख्य रूप से ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने जो कार्य किया वह भिन्न था। यीशु ने परमेश्वर के आत्मा का प्रतिनिधित्व किया, और वह परमेश्वर का आत्मा था जो सीधे तौर पर कार्य कर रहा था। उसने नये युग का कार्य किया, ऐसा कार्य जिसे पहले कभी किसी ने नहीं किया था। उसने एक नया मार्ग प्रशस्त किया, उसने यहोवा का प्रतिनिधित्व किया, और उसने स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व किया। जबकि पतरस, पौलुस और दाऊद, इस बात की परवाह किए बिना कि उन्हें क्या कहकर पुकारा जाता था, उन्होंने केवल परमेश्वर के एक प्राणी की पहचान का प्रतिनिधित्व किया था, और उन्हें सिर्फ यीशु या यहोवा के द्वारा भेजा गया था। इसलिए भले ही उन्होंने कितना ही काम क्यों न किया हो, भले ही उन्होंने कितने ही बड़े चमत्कार क्यों न किये हों, वे तब भी बस परमेश्वर के प्राणी ही थे, और परमेश्वर के आत्मा का प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ थे। उन्होंने परमेश्वर के नाम पर या परमेश्वर के द्वारा भेजे जाने के बाद ही कार्य किया था; इससे भी बढ़कर, उन्होंने यीशु या यहोवा के द्वारा शुरू किए गए युगों में कार्य किया था, और उन्होंने जो कार्य किया वह पृथक नहीं था। आख़िरकार, वे मात्र परमेश्वर के प्राणी ही थे। पुराने नियम में, बहुत सारे भविष्यद्वक्ताओं ने भविष्यवाणियाँ की थीं, या भविष्यवाणी की पुस्तकें लिखी थीं। किसी ने भी नहीं कहा था कि वे परमेश्वर हैं, परन्तु जैसे ही यीशु ने कार्य करना आरम्भ किया, परमेश्वर के आत्मा ने उसकी गवाही दी कि वह परमेश्वर है। ऐसा क्यों है? इस बिन्दु पर तुम्हें पहले से ही जान लेना चाहिए! इससे पहले, प्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओं ने विभिन्न धर्मपत्र लिखे, और बहुत सी भविष्यवाणियाँ कीं। बाद में, लोगों ने बाइबल में रखने के लिए उनमें से कुछ को चुन लिया, और कुछ खो गई थीं। चूँकि ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि उनके द्वारा बोला गया सब कुछ पवित्र आत्मा से आया, तो क्यों इसमें से कुछ को अच्छा माना जाता है, और इसमें से कुछ को खराब माना जाता है? और क्यों कुछ को चुना गया था, और अन्यों को नहीं? यदि वे वाकई में पवित्र आत्मा के द्वारा कहे गए वचन होते, तो क्या लोगों को उनका चयन करने की आवश्यकता होती? क्यों यीशु के द्वारा बोले गए वचनों और उस कार्य का विवरण जो उसने किया चारों सुसमाचारों में से प्रत्येक में भिन्न-भिन्न है? क्या यह उन लोगों का दोष नहीं हैं जिन्होंने इसे दर्ज किया? कुछ लोग पूछेंगे, "चूँकि पौलुस और नए नियम के लेखकों द्वारा लिखे गए धर्मपत्र और वह कार्य जो उन्होंने किया था वे आंशिक रूप से मनुष्य की इच्छा से आये थे, और मनुष्य की धारणाओं के साथ मिश्रित हो गए थे, तो क्या उन वचनों में कोई मानवीय अशुद्धता नहीं है जिन्हें आज तुम (परमेश्वर) बोलते हो, क्या उनमें वास्तव में कोई भी मानवीय धारणा शामिल नहीं है?" परमेश्वर के द्वारा किये गए कार्य का यह चरण पौलुस और अनेक प्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओं के द्वारा किये गए कार्य से पूरी तरह से भिन्न है। न केवल यहाँ पहचान में अन्तर है, बल्कि, मुख्य रूप से, कार्यान्वित किए गए कार्य में भी अन्तर है। जब पौलुस को नीचे गिराया गया और वह प्रभु के सामने गिर पड़ा उसके पश्चात्, कार्य करने के लिए पवित्र आत्मा के द्वारा उसकी अगुवाई की गई थी, और वह एक भेजा हुआ बन गया था। और इसलिए उसने कलीसियाओं को धर्मपत्र लिखे, और इन सभी धर्मपत्रों ने यीशु की शिक्षाओं का अनुसरण किया था। पौलुस को प्रभु यीशु के नाम पर कार्य करने के लिए प्रभु के द्वारा भेजा गया था, परन्तु जब परमेश्वर स्वयं आया, तो उसने किसी नाम में कार्य नहीं किया, तथा अपने कार्य में किसी और का नहीं बल्कि परमेश्वर के आत्मा का प्रतिनिधित्व किया। परमेश्वर अपने कार्य को सीधे तौर पर करने के लिए आया: उसे मनुष्य के द्वारा सिद्ध नहीं बनाया गया था, और उसके कार्य को किसी मनुष्य की शिक्षाओं के आधार पर कार्यान्वित नहीं किया गया था। कार्य के इस चरण में परमेश्वर अपने व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में बात करने के द्वारा अगुवाई नहीं करता है, बल्कि इसके बजाए जो कुछ उसके पास है उसके अनुसार अपने कार्य को सीधे तौर पर कार्यान्वित करता है। उदाहरण के लिए, सेवा करने वालों की परीक्षा, ताड़ना के समय, मृत्यु का कार्य, और मृत्यु की परीक्षा, परमेश्वर से प्रेम करने के समय...। यह सब वह कार्य है जो पहले कभी नहीं किया गया है, और ऐसा कार्य है जो, मनुष्य के अनुभवों के बजाय, वर्तमान युग का है। उन वचनों में जो मैंने कहे है, मनुष्य के अनुभव कौन से हैं? क्या वे सब सीधे तौर पर पवित्रात्मा से नहीं आते हैं, और क्या वे पवित्रात्मा के द्वारा जारी नहीं किये जाते हैं? बस इतना ही है कि तुम्हारी क्षमता इतनी कम है कि तुम सत्य की सही प्रकृति को देखने में असमर्थ हो! जीवन का वह व्यावहारिक तरीका जिसके बारे में मैं कहता हूँ पथ के मार्गदर्शन के लिए है, और इसे किसी के द्वारा पहले कभी नहीं कहा गया है, न ही कभी किसी ने इस पथ का अनुभव किया है, या इसकी वास्तविकता को जाना है। इन वचनों को मेरे कहने से पहले, किसी ने कभी उन्हें नहीं कहा था। किसी ने कभी ऐसे अनुभवों के बारे में बात नहीं की थी, न ही उन्होंने कभी ऐसे विवरणों को कहा था, और, इससे भी बढ़ कर, किसी ने भी इन चीज़ों को प्रकट करने के लिए ऐसी अवस्थाओं की ओर कभी संकेत नहीं किया था। किसी ने कभी भी उस पथ की अगुवाई नहीं की जिसकी अगुवाई आज मैं करता हूँ, और यदि इसकी अगुवाई मनुष्य के द्वारा की जाती, तो यह एक नया मार्ग नहीं होता। उदाहरण के लिए, पौलुस और पतरस को लें। उनके पास यीशु द्वारा अगुआई किए गए पथ पर चलने[क] से पहले अपने स्वयं के कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं थे। जब यीशु ने उस पथ की अगुवाई की केवल उसके बाद ही उन्होंने यीशु के द्वारा बोले गए वचनों का, और उसके द्वारा अगुआई किए गए पथ का अनुभव किया; इससे उन्होंने अनेक अनुभव अर्जित किए, और धर्मपत्रों को लिखा। और इस प्रकार, मनुष्य के अनुभव उसके समान नहीं हैं जैसा परमेश्वर का कार्य है, और परमेश्वर का कार्य उस ज्ञान के समान नहीं है जैसा मनुष्य की धारणाओं और अनुभवों के द्वारा वर्णन किया जाता है। मैंने बार-बार कहा है कि मैं एक नए पथ की अगुवाई कर रहा हूँ, और नया कार्य कर रहा हूँ, और मेरा कार्य और मेरे कथन यूहन्ना और अन्य सभी भविष्यद्वक्ताओं से भिन्न हैं। मैं कभी भी ऐसा नहीं करता हूँ कि पहले अनुभवों को प्राप्त करूँ और फिर उन्हें तुम लोगों से कहूँ—ऐसा मामला तो बिल्कुल भी नहीं है। यदि ऐसा होता, तो क्या इससे तुम लोगों को बहुत पहले ही देर न हो जाती? अतीत में, जिस ज्ञान के बारे में बहुतों ने बात की थी उसे भी ऊँचा उठा दिया जाता, परन्तु उनके सभी वचनों को केवल उन तथाकथित आध्यात्मिक व्यक्तियों के आधार पर बोला गया था। उन्होंने मार्ग का मार्गदर्शन नहीं किया, परन्तु वे उनके अनुभवों से आये थे, जो कुछ उन्होंने देखा था उससे, और उनके ज्ञान से आये थे। कुछ उनकी धारणाएँ थीं, और कुछ अनुभव थे जिनका उन्होंने सार प्रस्तुत किया था। आज, मेरे कार्य का स्वभाव उनसे पूरी तरह से भिन्न है। मैंने दूसरों के द्वारा अगुवाई किये जाने का अनुभव नहीं किया है, न ही मैंने दूसरों के द्वारा सिद्ध किये जाने को स्वीकार किया है। इससे भी बढ़ कर, मैंने जो कुछ भी कहा और जिसकी भी संगति की है वह सब किसी भी अन्य के असदृश है, और किसी अन्य के द्वारा कभी नहीं बोला गया है। आज, इस बात की परवाह किए बिना कि तुम कौन हो, तुम लोगों का कार्य उन वचनों के आधार पर कार्यान्वित किया जाता है जिन्हें मैं बोलता हूँ। इन कथनों और कार्य के बिना, कौन इन चीज़ों का अनुभव करने में सक्षम होता (सेवा करने वालों की परीक्षा, ताड़ना के समय...), और कौन ऐसे ज्ञान को कहने में समर्थ होता? क्या तुम सचमुच इसे देखने में असमर्थ हो? इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि, जैसे ही मेरे वचन कहे जाते हैं, तुम लोग मेरे वचनों के अनुसार कार्य के किस कदम पर संगति करना शुरू करते हो, और उनके अनुसार काम करते हो, और यह ऐसा मार्ग नहीं है जिसके बारे में तुम लोगों में से किसी ने भी सोचा है। इतनी दूर तक आने के बाद, क्या तुम इतने स्पष्ट और सरल प्रश्न को देखने में असमर्थ हो? यह ऐसा मार्ग नहीं है जिसे किसी ने सोचा है, न ही यह किसी आध्यात्मिक व्यक्ति पर आधारित है। यह एक नया पथ है, और यहाँ तक कि बहुत से वचन भी जिन्हें कभी यीशु के द्वारा कहा गया था वे अब और लागू नहीं होते हैं। जो मैं कहता हूँ वह एक नये युग को शुरू करने का कार्य है, और यह ऐसा कार्य है जो अकेला जारी रहता है; जो कार्य मैं करता हूँ, और जो वचन मैं कहता हूँ, वे सब नए हैं। क्या यह आज का नया कार्य नहीं है? यीशु का कार्य भी इसके जैसा ही था। उसका कार्य भी मन्दिर के लोगों से भिन्न था, और इसलिए यह फरीसियों के कार्य से भी भिन्न था, और न ही यह उस कार्य के समान था जो इस्राएल के सभी लोगों के द्वारा किया गया था। इसे देखने के बाद, लोग अपने मन नहीं बना सके: क्या इसे सचमुच में परमेश्वर के द्वारा किया गया था? यीशु ने यहोवा की व्यवस्था को नहीं माना; जब वह मनुष्य को सिखाने आया, तो जो कुछ उसने कहा वह उससे नया और भिन्न था जिन्हें प्राचीन संतों और पुराने नियम के भविष्यद्वक्ताओं के द्वारा कहा गया था, और इस वजह से, लोग अनिश्चित बने रहे। यह वह बात है जिससे मनुष्य के साथ निपटना बहुत ही कठिन हो जाता है। कार्य के इस नये चरण को स्वीकार करने से पहले, वह पथ जिस पर तुम में से अधिकतर लोग चलते थे वह उन आध्यात्मिक व्यक्तियों की उस नींव का अभ्यास करना और उसमें प्रवेश करना था। परन्तु आज, वह कार्य जिसे मैं करता हूँ वह बहुत ही भिन्न है, और इसलिए तुम लोग यह निर्णय लेने में असमर्थ हो कि यह सही है या नहीं। मैं परवाह नहीं करता हूँ कि पहले तुम किस पथ पर चले थे, न ही मेरी इसमें रुचि है कि तुमने किसका "भोजन" खाया था, या किसे तुमने अपने "पिता" के रूप में अपनाया था। चूँकि मैं आ गया हूँ और मनुष्य का मार्गदर्शन करने के लिए नया कार्य लाया हूँ, इसलिए जो मेरा अनुसरण करते हैं उन सभी को जो कुछ मैं कहता हूँ उसके अनुसार अवश्य कार्य करना चाहिए। तुम चाहे कितने ही सामर्थ्यवान "परिवार" से क्यों न आते हो, तुम्हें मेरा अनुसरण करना ही होगा, तुम्हें अपने पहले के अभ्यासों के अनुसार काम नहीं करना चाहिए, तुम्हारे "पालक पिता" को पद से हट जाना चाहिए, और अपना न्यायसंगत हिस्सा खोजने के लिए तुम्हें अपने परमेश्वर के सामने आना चाहिए। तुम समग्र रूप से मेरे ही हाथों में हो, और तुम्हें अपने पालक पिता के प्रति बहुत अधिक अंधा विश्वास अर्पित नहीं करना चाहिए; वह तुम्हें पूरी तरह से नियन्त्रित नहीं कर सकता है। आज का कार्य अकेले जारी है। जो कुछ मैं आज कहता हूँ वह सब स्पष्ट रुप से अतीत की किसी बुनियाद पर आधारित नहीं है; यह एक नई शुरुआत है, और यदि तुम कहो कि इसे मनुष्य के हाथ से सृजित किया जाता है, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसके लिए ऐसा कुछ भी नहीं है जो तुम्हारे अंधेपन को ठीक कर सकता हो!


यशायाह, यहेजकेल, मूसा, दाऊद, अब्राहम और दानिय्येल इस्राएल के चुने हुए लोगों में से अगुवे या भविष्यद्वक्ता थे। उन्हें परमेश्वर क्यों नहीं कहा गया था? क्यों पवित्र आत्मा ने उनकी गवाही नहीं दी? क्यों जैसे ही यीशु ने अपना कार्य प्रारम्भ किया और अपने वचनों को बोलना आरम्भ किया तो पवित्र आत्मा ने यीशु की गवाही दी? और क्यों पवित्र आत्मा ने अन्य लोगों की गवाही नहीं दी? जो मनुष्य हाड़-माँस के थे, उन्हें, "प्रभु" कहकर पुकारा जाता था। इस बात की परवाह किये बिना कि उन्हें क्या कहकर पुकारा जाता था, उनका कार्य उनके अस्तित्व और सार को दर्शाता है, और उनका अस्तित्व और सार उनकी पहचान को दर्शाता है। उनका सार उनकी पदवियों से सम्बंधित नहीं है; जो कुछ वे अभिव्यक्त करते थे, और जैसा जीवन वे जीते थे उसके द्वारा इसे दर्शाया जाता है। पुराने नियम में, प्रभु कहकर पुकारा जाना सामान्य बात से बढ़कर और कुछ नहीं था, और किसी भी व्यक्ति को किसी भी तरह से पुकारा जा सकता था, परन्तु उसका सार और अंतर्निहित पहचान अपरिवर्तनीय रहती थी। उन झूठे मसीहाओं, झूठे भविष्यद्वक्ताओं और धोखेबाजों के बीच, क्या ऐसे लोग भी नहीं हैं जिन्हें "परमेश्वर" कहा जाता है? और क्यों वे परमेश्वर नहीं हैं? क्योंकि वे परमेश्वर का कार्य करने में असमर्थ हैं। मूलतः वे मनुष्य, लोगों को धोखा देने वाले हैं, न कि परमेश्वर; और इसलिए उनके पास परमेश्वर की पहचान नहीं है। क्या बारह गोत्रों में दाऊद को भी प्रभु कहकर नहीं पुकारा जाता था? यीशु को भी प्रभु कहकर पुकारा गया था; क्यों सिर्फ यीशु को ही देहधारी परमेश्वर कहकर पुकारा गया था? क्या यिर्मयाह को भी मनुष्य के पुत्र के रूप में नहीं जाना जाता था? और क्या यीशु को मनुष्य के पुत्र के रूप में नहीं जाना जाता था? क्यों यीशु को परमेश्वर की ओर से सलीब पर चढ़ाया गया था? क्या ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि उसका सार भिन्न था? क्या ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि जो कार्य उसने किया वह भिन्न था? क्या पद नाम से फर्क पड़ता है? यद्यपि यीशु को भी मनुष्य का पुत्र कहा जाता था, फिर भी वह परमेश्वर का पहला देहधारण था, वह सामर्थ्य ग्रहण करने, और छुटकारे के कार्य को पूरा करने के लिए आया था। यह साबित करता है कि यीशु की पहचान और सार उन दूसरों से भिन्न थे जिन्हें भी मनुष्य का पुत्र कहा जाता था। आज, तुम लोगों में से कौन यह कहने का साहस कर सकता है कि सभी वचन जिन्हें उन लोगों के द्वारा कहा गया था जिन्हें पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किया गया था, पवित्र आत्मा से आये थे? क्या किसी में ऐसी चीज़ें कहने का साहस है? यदि तुम ऐसी चीज़ें कहते हो, तो फिर क्यों एज्रा की भविष्यवाणी की पुस्तक को अलग छोड़ दिया गया था, और क्यों यही चीज़ उन प्राचीन संतों और भविष्यद्वक्ताओं की पुस्तकों के साथ की गई थी? यदि वे सभी पवित्र आत्मा से आयी थीं, तो तुम लोग क्यों ऐसे स्वेच्छाचारी चुनाव करने का साहस करते हो? क्या तुम पवित्र आत्मा के कार्य को चुनने के योग्य हो? इस्राएल की बहुत सारी कहानियों को भी अलग छोड़ दिया गया था। और यदि तुम मानते हो कि अतीत के ये सभी लेख पवित्र आत्मा से आये, तो फिर क्यों कुछ पुस्तकों को अलग छोड़ दिया गया था? यदि वे सभी पवित्र आत्मा से आये, तो उन सब को सुरक्षित रखा जाना चाहिए, और पढ़ने के लिए कलीसियाओं के भाइयों और बहनों को भेजा जाना चाहिए। उन्हें मानवीय इच्छा के अनुसार नहीं चुना या अलग छोड़ा जाना चाहिए; ऐसा करना ग़लत है। यह कहना कि पौलुस और यूहन्ना के अनुभव उनके व्यक्तिगत अवलोकनों के साथ घुल-मिल गए थे इसका यह मतलब नहीं है कि उनके अनुभव और ज्ञान शैतान से आये थे, बल्कि बात केवल इतनी है कि उनके पास ऐसी चीज़ें थीं जो उनके व्यक्तिगत अनुभवों और अवलोकनों से आई थीं। उनका ज्ञान उस समय के वास्तविक अनुभवों की पृष्ठभूमि के अनुसार था, और कौन आत्मविश्वास के साथ कह सकता था कि यह सब पवित्र आत्मा से आया था। यदि चारों सुसमाचार पवित्र आत्मा से आये, तो ऐसा क्यों था कि मत्ती, मरकुस, लूका और यूहन्ना प्रत्येक ने यीशु के कार्य के बारे कुछ भिन्न कहा? यदि तुम लोग इस पर विश्वास नहीं करते हो, तो फिर तुम बाइबल के विवरणों में देखो कि किस प्रकार पतरस ने यीशु को तीन बार नकारा था: वे सब भिन्न हैं, और उनमें से प्रत्येक की अपनी विशेषताएँ हैं। बहुत से लोग जो अज्ञानी हैं वे कहते हैं, "देहधारी परमेश्वर भी एक मनुष्य था, तो क्या जो वचन वह कहता है पूरी तरह से पवित्र आत्मा से आ सकते हैं? जब पौलुस और यूहन्ना के वचन मानवीय इच्छा के साथ मिले हुए थे, तो क्या जिन वचनों को वो कहता है वे वास्तव में मानवीय इच्छा के साथ मिले हुए नहीं हैं?" जो लोग ऐसी बातें करते हैं वे अन्धे, और अज्ञानी हैं! चारों सुसमाचारों को ध्यानपूर्वक पढ़ो; पढ़ो कि उन्होंने उन चीज़ों के बारे में क्या दर्ज किया है जो यीशु ने की थीं, और उन वचनों को पढ़ो जो उसने कहे थे। प्रत्येक विवरण, एकदम सरल रूप में, भिन्न था, और प्रत्येक का उसका अपना परिप्रेक्ष्य था। यदि इन पुस्तकों के लेखकों के द्वारा जो कुछ लिखा गया था वह सब पवित्र आत्मा से आया, तो यह सब एक समान और सुसंगत होना चाहिए। तो फिर क्यों उनमें विसंगतियाँ हैं? क्या मनुष्य अत्यंत मूर्ख नहीं है जो इसे देखने में असमर्थ है? यदि तुम्हें परमेश्वर की गवाही देने के लिए कहा जाता, तो तुम किस प्रकार की गवाही प्रदान कर सकते हो? क्या परमेश्वर को जानने का ऐसा तरीका उसकी गवाही दे सकता है? यदि अन्य लोग तुमसे पूछें, "यदि यूहन्ना और लूका के लेख मानवीय इच्छा के साथ मिश्रित हो गए थे, तो क्या तुम लोगों के परमेश्वर के द्वारा कहे गए वचन मानवीय इच्छा से मिश्रित नहीं हो जाते हैं?" क्या तुम एक स्पष्ट उत्तर दे पाओगे? लूका और मत्ती ने यीशु के वचनों को सुना, और यीशु के कार्यों को देखा उसके पश्चात्, उन्होंने यीशु के द्वारा किये गए कुछ तथ्यों के संस्मरणों का विवरण देने के तरीके से अपने स्वयं के ज्ञान के बारे में बोला था। क्या तुम कह सकते हो कि उनके ज्ञान को पूरी तरह से पवित्र आत्मा के द्वारा प्रकट किया गया था? बाइबल के बाहर, कई आध्यात्मिक व्यक्ति थे जिनके पास उनसे भी अधिक ज्ञान था; क्यों बाद की पीढ़ियों के द्वारा उनके वचनों को नहीं अपनाया गया था? क्या उनका भी पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग नहीं किया गया था? यह जान लें कि आज के कार्य में, मैं यीशु के कार्य की बुनियाद के आधार पर अपने स्वयं के देखने के बारे में नहीं बोल रहा हूँ, और न ही मैं यीशु के कार्य की पृष्ठभूमि के सामने अपने स्वयं के ज्ञान के बारे में बोल रहा हूँ। उस समय यीशु ने कौन सा कार्य किया था? और आज मैं कौन सा कार्य कर रहा हूँ? जो मैं करता और कहता हूँ उसकी कोई मिसाल नहीं है। जिस पथ पर मैं आज चलता हूँ उस पर इससे पहले कभी नहीं गया गया है, इस पर युगों-युगों से लोगों और अतीत की पीढ़ियों के द्वारा कभी नहीं चला गया था। आज, इसे खोल दिया गया है, और क्या यह पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है? यद्यपि यह पवित्र आत्मा का कार्य था, फिर भी अतीत के सभी अगुवाओं ने अपने कार्य को औरों की बुनियाद पर कार्यान्वित किया था; हालाँकि, स्वयं परमेश्वर का कार्य भिन्न होता है। यीशु के कार्य का चरण वही था: उसने एक नया मार्ग प्रशस्त किया। जब वह आया तब उसने स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार का उपदेश दिया, और कहा कि मनुष्य को पश्चाताप करना, और पाप-स्वीकार करना चाहिए। जब यीशु ने अपना कार्य पूरा किया उसके बाद, पतरस और पौलुस और दूसरों ने यीशु के कार्य को करना प्रारम्भ किया था। जब यीशु को सलीब पर चढ़ा दिया गया और उसे स्वर्ग में उठा लिया गया उसके बाद, उन्हें क्रूस के मार्ग को फैलाने के लिए पवित्र आत्मा के द्वारा भेजा गया था। यद्यपि पौलुस के वचन उत्कृष्ट थे, फिर भी वे भी यीशु ने जो कहा था उसके द्वारा डाली गई बुनियाद पर आधारित थे, जैसे कि धैर्य, प्रेम, कष्ट, सिर ढकना, बपतिस्मा, या पालन किए जाने वाले अन्य सिद्धान्त। यह सब यीशु के वचनों की बुनियाद पर था। वे एक नया मार्ग खोलने में असमर्थ थे, क्योंकि वे सभी परमेश्वर के द्वारा उपयोग किए गए मनुष्य थे।


उस समय यीशु के कथन और कार्य सिद्धान्त के अनुसार नहीं थे, और उसने अपने कार्य को पुराने नियम की व्यवस्था के कार्य के अनुसार कार्यान्वित नहीं किया था। यह उस कार्य के अनुसार था जो अनुग्रह के युग में किया जाना चाहिए। उसने उस कार्य के अनुसार, अपनी स्वयं की योजनाओं के अनुसार, और अपने सेवकाई के अनुसार परिश्रम किया जो उसने प्रकट किए थे; उसने पुराने नियम की व्यवस्था के अनुसार कार्य नहीं किया। उसने जो भी किया उसमें कुछ भी पुराने नियम की व्यवस्था के अनुसार नहीं था, और वह भविष्यद्वक्ताओं के वचनों को पूरा करने के कार्य को करने के लिए नहीं आया था। परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक चरण स्पष्ट रूप से प्राचीन भविष्यद्वक्ताओं की भविष्यवाणियों को पूरा करने के लिए नहीं था, वह सिद्धान्त का पालन करने या प्राचीन भविष्यद्वक्ताओं की भविष्यवाणियों को जान-बूझकर साकार करने के लिए नहीं आया था। फिर भी उसके कार्यों ने प्राचीन भविष्यद्वक्ताओं की भविष्यवाणियों में व्यवधान नहीं डाला, न ही उन्होंने उस कार्य में व्यवधान डाला था जो उसने पहले किया था। उसके कार्य का प्रमुख बिन्दु किसी सिद्धान्त का पालन नहीं करना, और उस कार्य को करना था जो उसे स्वयं करना चाहिए था। वह कोई भविष्यद्वक्ता या नबी नहीं था, बल्कि कार्य करने वाला था, जो वास्तव में उस कार्य को करने आया था जिसे करने की अपेक्षा उससे की गई थी, और वह अपने नए युग को शुरू करने और अपने नये कार्य को कार्यान्वित करने के लिए आया था। निस्संदेह, जब यीशु अपना कार्य करने के लिए आया, तो उसने पुराने नियम में प्राचीन भविष्यद्वक्ताओं के द्वारा कहे गए बहुत से वचनों को भी पूरा किया। इसलिए आज के कार्य ने पुराने नियम के प्राचीन भविष्यद्वक्ताओं की भविष्यवाणियों को भी पूरा किया है। बस ऐसा है कि मैं उस "पीली पड़ चुकी पुरानी जन्त्री" को पकड़े नहीं रहता हूँ, बस इतना ही। क्योंकि और भी बहुत से कार्य हैं जो मुझे करने हैं, तथा और भी बहुत से वचन हैं जो मुझे तुम लोगों से अवश्य कहने हैं; और यह कार्य और ये वचन बाइबल के अंशों की व्याख्या करने की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ऐसे कार्य का तुम लोगों के लिए कोई बड़ा महत्व या मूल्य नहीं है, और यह तुम लोगों की सहायता नहीं कर सकता है, या तुम लोगों को बदल नहीं सकता है। मैं नया कार्य करने का इरादा बाइबल के किसी अंश को पूरा करने के वास्ते नहीं करता हूँ। यदि परमेश्वर केवल बाइबल के प्राचीन भविष्यद्वक्ताओं के वचनों को पूरा करने के लिए पृथ्वी पर आया, तो अधिक बड़ा कौन है, देहधारी परमेश्वर या वे प्राचीन भविष्यद्वक्ता? आख़िरकार, क्या भविष्यवक्ता परमेश्वर के प्रभारी हैं, या परमेश्वर भविष्यद्वक्ताओं का प्रभारी है? तुम इन वचनों की व्याख्या कैसे करते हो?


शुरुआत में, जब यीशु ने आधिकारिक रूप से अपनी सेवकाई को क्रियान्वित नहीं किया था, तब उन चेलों के समान जो उसका अनुसरण करते थे, वह भी कभी-कभी सभाओं में उपस्थित होता था, और मन्दिर में भजनों को गाता था, स्तुति करता था, और पुराना नियम पढ़ता था। जब उसने बपतिस्मा लिया और आगे बढ़ा उसके बाद, पवित्र आत्मा ने, अपनी पहचान को और उस सेवकाई को प्रकट करते हुए जो वह शुरू करने वाला था, आधिकारिक रूप से उस पर उतर कर कार्य करना शुरू किया। इससे पहले, कोई उसकी पहचान को नहीं जानता था, और मरियम को छोड़कर, यहाँ तक कि यूहन्ना भी नहीं जानता था। यीशु 29 वर्ष का था जब उसने बपतिस्मा लिया। जब उसका बपतिस्मा पूरा हो गया उसके बाद, आकाश खुल गया और एक आवाज आई: "यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिससे मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ।" जब एक बार यीशु का बपतिस्मा हो गया, तो पवित्र आत्मा ने इस तरह से उसकी गवाही देनी शुरू कर दी। बपतिस्मा दिए जाने से पहले 29 वर्ष की आयु तक, उसने एक साधारण मनुष्य का जीवन जीया था, तब खाया जब उसे खाना चाहिए था, सामान्य रूप से सोता और कपड़े पहनता था, और उसके बारे में कुछ भी अन्य लोगों से भिन्न नहीं था। निस्संदेह यह सिर्फ मनुष्य की दैहिक आँखों के लिए था। कभी-कभी वह भी कमज़ोर हो जाता था, और कभी-कभी वह भी चीज़ों को नही समझ सकता था, ठीक जैसा कि बाइबल में लिखा हुआ है: उसकी बुद्धि उसकी आयु के साथ साथ बढ़ने लगी। ये वचन मात्र इस बात को दर्शाते हैं कि उसके पास एक साधारण और सामान्य मानवता थी, और वह अन्य सामान्य लोगों से विशेष रूप से भिन्न नहीं था। वह भी एक सामान्य व्यक्ति के समान ही बड़ा हुआ था, और उसके बारे में कुछ भी विशेष नहीं था। फिर भी वह परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा के अधीन था। बपतिस्मा होने के बाद, वह प्रलोभित किया जाने लगा, जिसके बाद उसने अपनी सेवकाई को और कार्य को करना शुरू किया, और वह सामर्थ्य, और बुद्धि, और अधिकार को धारण किए हुए था। कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि उसके बपतिस्मा से पहले पवित्र आत्मा ने उसमें कार्य नहीं किया, या उसके भीतर नहीं था। उसके बपतिस्मा से पहले पवित्र आत्मा भी उसके भीतर रहता था परन्तु उसने आधिकारिक रूप से कार्य करना शुरू नहीं किया था, क्योंकि इस बात की सीमाएँ है कि कब परमेश्वर अपना कार्य करता है, और, इसके अतिरिक्त, सामान्य लोगों में बढ़ने की एक सामान्य प्रक्रिया होती है। पवित्र आत्मा हमेशा उसके भीतर रहता था। जब यीशु का जन्म हुआ, तो वह दूसरों से भिन्न था, और एक भोर का तारा प्रकट हुआ था; उसके जन्म से पहले, एक स्वर्ग दूत यूसुफ के स्वप्न में प्रकट हुआ और उससे कहा कि मरियम ने एक बालक शिशु को जन्म देना है, और यह कि पवित्र आत्मा के द्वारा उस बालक को गर्भ में धारण किया गया था। यह यीशु के बपतिस्मा के तुरन्त बाद नहीं हुआ था, जो वो वक्त भी था जब पवित्र आत्मा ने अपने कार्य को शुरू किया था, कि पवित्र आत्मा उस पर उतरा था। यह कहना कि पवित्र आत्मा एक कबूतर के रूप में उस पर उतरा था यह उसकी सेवकाई की आधिकारिक शुरुआत के सन्दर्भ में है। परमेश्वर का आत्मा पहले से ही उसके भीतर था, परन्तु उसने कार्य करना शुरू नहीं किया था, क्योंकि समय नहीं आया था, और पवित्रात्मा ने उतावली में कार्य नहीं किया था। पवित्रात्मा ने बपतिस्मा के माध्यम से उसकी गवाही दी। जब वह पानी से बाहर आ कर प्रकट हुआ, तो पवित्रात्मा ने आधिकारिक रूप से उसमें कार्य करना शुरू कर दिया, जो इस बात का द्योतक था कि देहधारी परमेश्वर की देह ने अपनी सेवकाई को पूरा करना शुरू कर दिया है, और छुटकारे का कार्य शुरू कर दिया था, अर्थात्, अनुग्रह का युग आधिकारिक रूप से शुरू हो गया था। और इसलिए, परमेश्वर के कार्य का एक समय होता है, चाहे वह कोई भी कार्य क्यों न करता हो। उसके बपतिस्मा के बाद, यीशु में कोई विशेष बदलाव नहीं हुए थे: वह अब भी अपनी मूल देह में ही था। बस इतना ही है कि उसने अपने कार्य को शुरू किया और अपनी पहचान को प्रकट किया, और वह अधिकार और सामर्थ्य से भरपूर था। इस लिहाज से वह पहले से भिन्न था। उसकी पहचान भिन्न थी, कहने का तात्पर्य है कि उसकी हैसियत में एक महत्वपूर्ण बदलाव हुआ था; यह पवित्र आत्मा की गवाही थी, और ऐसा कार्य नहीं था जिसे मनुष्य के द्वारा किया गया था। शुरुआत में, लोग नहीं जानते थे, और उन्हें थोड़ा सा केवल तभी पता चला था जब एक बार पवित्र आत्मा ने इस तरह से यीशु की गवाही दी थी। यदि पवित्र आत्मा द्वारा यीशु की गवाही दिए जाने से पहले, किन्तु स्वयं परमेश्वर की गवाही के बिना, यीशु ने कोई बड़ा कार्य किया होता, तो इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उसका कार्य कितना बड़ा है, लोग उसकी पहचान को कभी नहीं जान पाते, क्योंकि मानवीय आँख इसे देखने में असमर्थ होती। पवित्र आत्मा की गवाही के कदम के बिना, कोई भी उसे देहधारी परमेश्वर के रूप में नहीं पहचान सकता था। जब पवित्र आत्मा ने उसकी गवाही दी उसके पश्चात्, यदि यीशु उसी तरह से, बिना किसी अन्तर के, कार्य करना जारी रखता, तो इसका वैसा प्रभाव नहीं हुआ होता। और इसमें मुख्य रूप से पवित्र आत्मा का कार्य भी प्रदर्शित होता है। पवित्र आत्मा के गवाही देने के बाद, पवित्र आत्मा को स्वयं को दिखाना पड़ा था, ताकि तुम स्पष्ट रूप से देख सको कि वह परमेश्वर है, यह कि उसके भीतर परमेश्वर का आत्मा है; परमेश्वर की गवाही गलत नहीं है, और यह साबित कर सकता था कि उसकी गवाही सही है। यदि पवित्र आत्मा की गवाही से पहले और उसके बाद का कार्य एक समान ही होता, तो उसकी देहधारी सेवकाई और पवित्र आत्मा का कार्य अधिक सुस्पष्ट नहीं हुआ होता, और इसलिए मनुष्य पवित्र आत्मा के कार्य को पहचानने में असमर्थ रहा होता, क्योंकि वहाँ कोई स्पष्ट अन्तर नहीं रहता। गवाही देने के बाद, पवित्र आत्मा को इस गवाही को बनाए रखना था, और इसलिए उसे यीशु में अपनी बुद्धि और अधिकार को प्रदर्शित करना पड़ा था, जो बीते समयों से भिन्न था। निस्संदेह, यह बपतिस्मा का प्रभाव नहीं था; बपतिस्मा मात्र एक धार्मिक अनुष्ठान था, बस इतना ही है कि बपतिस्मा यह दर्शाने का तरीका था कि यह उसकी सेवकाई को क्रियान्वित करने का समय था। ऐसा कार्य परमेश्वर की बड़ी सामर्थ्य को सुस्पष्ट करने, पवित्र आत्मा की गवाही को सुस्पष्ट करने के लिए था, और पवित्र आत्मा बिल्कुल अन्त तक इस गवाही की ज़िम्मेदारी लेगा। अपनी सेवकाई को क्रियान्वित करने से पहले, यीशु ने धर्मोपदेशों को भी सुना, विभिन्न स्थानों में सुसमाचार का उपदेश दिया और उसे फैलाया। उसने कोई बड़ा कार्य नहीं किया क्योंकि उसके लिए अपनी सेवकाई को क्रियान्वित करने का समय नहीं आया था, और इसलिए भी क्योंकि स्वयं परमेश्वर दीनता से देह में छिपा हुआ था, और जब तक समय नहीं आया तब तक उसने कोई कार्य नहीं किया। उसने बपतिस्मा से पहले दो कारणों से कार्य नहीं किया था: पहला, क्योंकि कार्य करने के लिए पवित्र आत्मा उस पर आधिकारिक रूप से नहीं उतरा था (कहने का तात्पर्य है कि, ऐसा कार्य करने के लिए पवित्र आत्मा ने यीशु को सामर्थ्य और अधिकार प्रदान नहीं किया था), और भले ही उसे अपनी स्वयं की पहचान ज्ञात हो जाती, तब भी यीशु उस कार्य को करने में असमर्थ होता जिसे उसने बाद में करने का इरादा किया था, और उसे अपने बपतिस्मा के दिन तक इन्तज़ार करना पड़ता। यह परमेश्वर का समय था, और कोई भी, यहाँ तक कि स्वयं यीशु भी, इसका उल्लंघन करने में समर्थ नहीं था; स्वयं यीशु भी अपने स्वयं के कार्य में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। निस्संदेह, यह परमेश्वर की नम्रता थी, और परमेश्वर के कार्य की व्यवस्था भी थी; यदि परमेश्वर का आत्मा कार्य नहीं करता, तो कोई भी उसके कार्य को नहीं कर सकता था। दूसरा, उसका बपतिस्मा होने से पहले, वह बस एक बहुत ही साधारण और सामान्य मनुष्य था, और अन्य आम और सामान्य लोगों से अलग नहीं था; यह इस बात का एक पहलू है कि कैसे देहधारी परमेश्वर अलौकिक नहीं था। देहधारी परमेश्वर ने परमेश्वर के आत्मा की व्यवस्थाओं का उल्लंघन नहीं किया; वह एक व्यवस्थित तरीके से और बहुत ही सामान्य रूप से कार्य करता था। यह केवल बपतिस्मा के बाद ही हुआ कि उसके कार्य में अधिकार और सामर्थ्य था। कहने का तात्पर्य है कि, यद्यपि वह देहधारी परमेश्वर था, फिर भी उसने किसी अलौकिक कार्य को कार्यान्वित नहीं किया, और सामान्य लोगों के समान ही बड़ा हुआ था। यदि यीशु ने पहले से ही अपनी पहचान को जान लिया होता, अपने बपतिस्मा के पहले सारी धरती पर बड़ा कार्य किया होता, और सामान्य लोगों से भिन्न होता, अपने आप को असाधारण दिखाया होता, तो न केवल यूहन्ना के लिए अपने कार्य को करना असंभव होता, बल्कि परमेश्वर के लिए भी अपने कार्य के अगले चरण को शुरू करने का कोई तरीका नहीं होता। और इसलिए इसने प्रमाणित किया होता कि जो कुछ परमेश्वर ने किया वह ग़लत हुआ था, और मनुष्य को ऐसा प्रतीत हुआ होता कि परमेश्वर का आत्मा और देहधारी परमेश्वर का देह एक ही स्रोत से नहीं आए थे। इसलिए, बाइबल में दर्ज यीशु का कार्य ऐसा कार्य है जिसे उसके बपतिस्मा के बाद कार्यान्वित किया गया था, ऐसा कार्य है जिसे तीन वर्षों के दौरान किया गया था। बाइबल इस बात को दर्ज नहीं करती है कि उसने बपतिस्मा से पहले क्या किया था क्योंकि उसने इस कार्य को बपतिस्मा किए जाने से पहले नहीं किया था। वह मात्र एक साधारण मनुष्य था, और एक साधारण मनुष्य का प्रतिनिधित्व करता था; यीशु के अपनी सेवकाई को क्रियान्वित करना शुरू करने से पहले, वह साधारण लोगों से भिन्न नहीं था, और दूसरे उसमें कोई भिन्नता नहीं देख सकते थे। जब वह 29 वर्ष का हो गया उसके बाद ही ऐसा हुआ कि यीशु ने जाना कि वह परमेश्वर के कार्य के एक चरण को पूरा करने के लिए आया है; इससे पहले, वह स्वयं नहीं जानता था, क्योंकि परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य अलौकिक नहीं था। जब बारह वर्ष की आयु में वह आराधनालय में एक सभा में उपस्थित हुआ, तो मरियम उसकी तलाश कर रही थी, और उसने किसी भी अन्य बच्चे की तरह सिर्फ एक वाक्य कहा: "माँ! क्या तू नहीं जानती कि मुझे अपने पिता की इच्छा को सभी चीज़ों से ऊपर रखना होगा?" निस्संदेह, चूँकि वह पवित्र आत्मा के द्वारा गर्भधारण किया गया था, इसलिए क्या यीशु किसी तरह से विशेष नहीं हो सकता था? परन्तु उसकी विशेषता का अर्थ यह नहीं था कि वह अलौकिक था, बल्कि मात्र इतना ही था कि वह किसी दूसरे छोटे बच्चे से बढ़कर परमेश्वर से प्रेम करता था। यद्यपि वह रंग-रूप में मनुष्य था, तब भी उसका सार दूसरों से विशेष और भिन्न था। बल्कि, यह केवल उसके बपतिस्मा के बाद ही था कि पवित्र आत्मा का उसमें कार्य करना उसकी वास्तव में समझ में आया, और यह समझ में आया कि वह स्वयं परमेश्वर है। जब वह 33 वर्ष की आयु में पहुँचा केवल तभी ऐसा हुआ कि उसने सचमुच में जाना कि पवित्र आत्मा ने उसके माध्यम से सलीब पर चढ़ने के कार्य को कार्यान्वित करने का इरादा किया था। 32 वर्ष की आयु में, उसने कुछ आन्तरिक सच्चाईयों को जान लिया था, ठीक जैसा कि मत्ती के सुसमाचार में लिखा हुआ है: "शमौन पतरस ने उत्तर दिया, 'तू जीवते परमेश्‍वर का पुत्र मसीह है।' ...उस समय से यीशु अपने चेलों को बताने लगा, 'अवश्य है कि मैं यरूशलेम को जाऊँ, और पुरनियों, और प्रधान याजकों, और शास्त्रियों के हाथ से बहुत दु:ख उठाऊँ; और मार डाला जाऊँ; और तीसरे दिन जी उठूँ।'" उसे पहले नहीं पता था कि उसे क्या कार्य करना है, परन्तु एक विशिष्ट समय पर पता चला। जैसे ही वह पैदा हुआ वह पूरी तरह से नहीं जानता था; पवित्र आत्मा ने धीरे-धीरे उसमें कार्य किया, और उस कार्य को करने की एक प्रक्रिया थी। यदि, बिल्कुल शुरुआत में ही, उसे पता चल गया था कि वह परमेश्वर, और मसीह, और मनुष्य का देहधारी पुत्र है, कि उसे सलीब पर चढ़ने के कार्य को पूरा करना है, तो उसने पहले कार्य क्यों नहीं किया? अपने चेलों को सेवकाई के बारे में बताने के बाद ही ऐसा क्यों हुआ कि यीशु ने दुःख महसूस किया, और इसके लिए ईमानदारी से प्रार्थना की? क्यों यूहन्ना ने उसके लिए मार्ग खोला और उसे बपतिस्मा दिया इससे पहले कि वह बहुत सी चीज़ों को समझ पाता जिन्हें उसने नहीं समझा था? जो कुछ यह साबित करता है वह यह है कि यह देह में देहधारी परमेश्वर का कार्य था, और इसलिए उसके लिए समझने, और प्राप्त करने के लिए एक प्रकिया थी, क्योंकि वह देहधारी परमेश्वर का देह था, जिसका कार्य आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर किये गए कार्य से भिन्न था।


स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया



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