अंतिम दिनों का मसीह - सर्वशक्तिमान परमेश्वर

सत्‍य क्या है? बाइबल का ज्ञान और सिद्धांत क्या है?

"आदि में वचन था, और वचन परमेश्‍वर के साथ था, और वचन परमेश्‍वर था" (यूहन्ना 1:1)।

"और वचन देहधारी हुआ; और अनुग्रह और सच्‍चाई से परिपूर्ण होकर हमारे बीच में डेरा किया" (यूहन्ना 1:14)।

"मार्ग और सत्य और जीवन मैं ही हूँ" (यूहन्ना 14:6)।

"सत्य के द्वारा उन्हें पवित्र कर: तेरा वचन सत्य है" (यूहन्ना 17:17)।

"उसने उनसे कहा, यशायाह ने तुम कपटियों के विषय में बहुत ठीक भविष्यद्वाणी की; जैसा लिखा है: 'ये लोग होठों से तो मेरा आदर करते हैं, पर उनका मन मुझ से दूर रहता है। ये व्यर्थ मेरी उपासना करते हैं, क्योंकि मनुष्यों की आज्ञाओं को धर्मोपदेश करके सिखाते हैं।' क्योंकि तुम परमेश्‍वर की आज्ञा को टालकर मनुष्यों की रीतियों को मानते हो। उसने उनसे कहा, 'तुम अपनी परम्पराओं को मानने के लिये परमेश्‍वर की आज्ञा कैसी अच्छी तरह टाल देते हो! …इस प्रकार तुम अपनी परम्पराओं से, जिन्हें तुम ने ठहराया है, परमेश्‍वर का वचन टाल देते हो; और ऐसे ऐसे बहुत से काम करते हो'" (मरकुस 7:6-13)।

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

मानव भाषा में व्यक्त सत्य मनुष्य की कहावत मात्र है; मानवता कभी इसे पूरी तरह से अनुभव नहीं करेगी, और मानवता को सत्य पर निर्भर रह कर जीना चाहिए। सत्य का केवल एक अंश हजारों सालों तक पूरी मानवजाति को जीने दे सकता है।

सत्य ही स्वयं परमेश्वर का जीवन है, उनके स्वयं के स्वभाव का प्रतिनिधित्व करता हुआ, उनके स्वयं के सार का और उनमें निहित सब कुछ का प्रतिनिधित्व करता है।

— "मसीह की बातचीतों के अभिलेख" में "क्या आप जानते हैं कि वास्तव में सत्य क्या है?" से उद्धृत

सत्य सूत्रित नहीं होता है, न ही कोई व्यवस्था है। यह मृत नहीं है—यह जीवन है, यह एक जीवित चीज़ है, और यह वह नियम है जिसका अनुसरण प्राणी को अवश्य करना चाहिए और वह नियम है जिसे मनुष्य को अपने जीवन में अवश्य रखना चाहिए। यह कुछ ऐसा है जिसे तुम्हें अनुभव से और अधिक समझना होगा। तुम अपने अनुभव की किसी भी अवस्था पर क्यों न पहुँच चुके हो, तुम परमेश्वर के वचनों या सत्य से अवियोज्य हो, और तुम जो कुछ परमेश्वर के स्वभाव के बारे में समझते हो और तुम परमेश्वर के स्वरूप के बारे में जो कुछ समझते हो वे सभी परमेश्वर के वचनों में व्यक्त होते है; और वे सत्य से विकट रूप से जुड़े हुए हैं। परमेश्वर का स्वभाव और उसका स्वरूप सभी अपने आप में सत्य हैं; सत्य परमेश्वर के स्वभाव और उसके स्वरूप की एक प्रामाणिक अभिव्यक्ति है। यह परमेश्वर के स्वरूप को साकार करता है और इसे स्पष्ट रूप से बताता है; यह तुम्हें और अधिक सीधी तरह से बताता है कि परमेश्वर क्या पसंद करता है, और वह क्या पसंद नहीं करता है, वह तुमसे क्या कराना चाहता है और वह तुम्हें क्या करने की अनुमति नहीं देता है, वह किस प्रकार के लोगों से घृणा करता है और वह किस प्रकार के लोगों से प्रसन्न होता है। जिन सत्‍यों को परमेश्वर प्रकट करता है उनके पीछे लोग उसके आनन्द, क्रोध, दुःख, और खुशी, और साथ ही उसके सार को देख सकते हैं—यह उसके स्वभाव का प्रकट होना है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में "परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III" से उद्धृत

सत्य जीवन की सर्वाधिक वास्तविक सूक्ति है, और मानवजाति के बीच इस तरह की सूक्तियों में सर्वोच्च है। क्योंकि यही वह अपेक्षा है जो परमेश्वर मनुष्य से करता है, और परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत रूप से किया गया कार्य है, इसलिए इसे "जीवन की सूक्ति" कहा जाता है। यह कोई ऐसी सूक्ति नहीं है जिसे किसी चीज में से संक्षिप्त किया गया है, न ही यह किसी महान व्यक्ति के द्वारा कहा गया प्रसिद्ध उद्धरण है; इसके बजाय, यह स्वर्ग और पृथ्वी, तथा सभी चीजों के स्वामी का मानवजाति के लिए कथन है, न कि मनुष्य द्वारा सारांश किए गए कुछ वचन, बल्कि परमेश्वर का अंतर्निहित जीवन है। इसलिए इसे समस्त जीवन की सूक्तियों का उच्चतम कहा जाता है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में "जो परमेश्वर को और उसके कार्य को जानते हैं केवल वे ही परमेश्वर को सन्तुष्ट कर सकते हैं" से उद्धृत

सब कुछ जो परमेश्वर करता है वह सत्य और जीवन है। मनुष्य-जाति के लिए सत्य कोई ऐसी चीज़ है जिसकी उनके जीवन में कमी नहीं हो सकती है, जिसके बिना वे कभी कुछ नहीं कर सकते हैं; तुम ऐसा भी कह सकते हो कि यह सबसे बड़ी चीज़ है। यद्यपि तुम उसे देख या उसे छू नहीं सकते हो, फिर भी तुम्हारे लिए उसके महत्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती है; यही वह एकमात्र चीज़ है जो तुम्हारे हृदय में शांति ला सकती है।

— "मसीह की बातचीतों के अभिलेख" में "केवल सत्य की खोज करके ही तू अपने स्वभाव में परिवर्तन को प्राप्त कर सकता है" से उद्धृत

कुछ लोग कार्य और प्रचार करते हैं, हालाँकि वे सतही तौर पर परमेश्वर के वचनों पर सहभागिता करते नज़र आते हैं, मगर वे परमेश्वर के वचनों पर मात्र शाब्दिक चर्चा कर रहे होते हैं, उनकी बातों में सार्थक कुछ नहीं होता। उनके उपदेश किसी भाषा की पाठ्य-पुस्तक की शिक्षा की तरह होते हैं, मद-दर-मद, पहलू-दर-पहलू क्रम-बद्ध किये हुए, और जब वे बोल लेते हैं, तो यह कहकर हर कोई उनकी स्तुति गान करता है: "इस व्यक्ति में वास्तविकता है। उसने इतने अच्छे ढंग से और इतने विस्तार से समझाया।" जब उनका उपदेश देना समाप्त हो जाता है, तो ये लोग दूसरे लोगों से इन सारी चीज़ों को इकट्ठा करके सभी को भेज देने के लिये कहते हैं। उनके कृत्य दूसरों का कपट बन जाते हैं और वे लोग जिन बातों का प्रचार करते हैं, वे सब भ्राँतियाँ होती हैं। देखने में ऐसा लगता है, जैसे ये लोग मात्र परमेश्वर के वचनों का प्रचार कर रहे हैं और यह सत्य के अनुरूप दिखता है। लेकिन अगर अधिक गौर से समझेंगे तो आप देखेंगे कि यह शब्दों और सिद्धांतों के अलावा कुछ नहीं है। यह सब इंसानी कल्पनाओं और धारणाओं के साथ झूठी विवेक-बुद्धि है, साथ ही कुछ हिस्सा ऐसा है जो परमेश्वर को सामांकित करता है। क्या इस तरह का उपदेश परमेश्वर के कार्य में बाधा नहीं है? यह एक ऐसी सेवा है जो परमेश्वर का विरोध करती है।

— "मसीह की बातचीतों के अभिलेख" में "केवल सत्य की खोज करके ही तू अपने स्वभाव में परिवर्तन को प्राप्त कर सकता है" से उद्धृत

आप सत्य का सार निकालने में भटक गए हैं; जब आप ये सभी सार निकाल लेते हैं, तो इससे केवल नियम ही प्राप्त होते हैं। आपका "सत्य का सार प्रस्तुत करना" लोगों को जीवन प्राप्त करने या अपने स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त करने देने के लिए नहीं है। इसके बजाय, इसके कारण लोग सत्य के भीतर से कुछ ज्ञान और सिद्धांतों में निपुणता प्राप्त करते हैं। वे ऐसे प्रतीत होते हैं मानो कि वे परमेश्वर के कार्य के पीछे के प्रयोजन को समझते हैं, जबकि वास्तव में उन्होंने केवल कुछ शब्दों और सिद्धांतों में निपुणता हासिल की है। वे सत्य के मर्म को नहीं समझते हैं, और यह धर्मशास्त्र का अध्ययन करने या बाइबल पढ़ने से भिन्न नहीं है। आप हमेशा इन पुस्तकों या उन सामग्रियों को संकलित करते रहते हैं, और इसलिए सिद्धांत के इस पहलू या ज्ञान के उस पहलू को धारण करने वाले बन जाते हैं। आप सिद्धांतों के प्रथम श्रेणी के वक्ता हैं—लेकिन जब आप बोल लेते हैं तो क्या होता है? तब लोग अनुभव करने में असमर्थ होते हैं, उन्हें परमेश्वर के कार्य की कोई समझ नहीं होती है और स्वयं की भी समझ नहीं होती है। अंत में, उन्होंने जो कुछ प्राप्त किया होगा वे बस सूत्र और नियम ही होंगे। आप उन चीजों के बारे में बात कर सकते हैं लेकिन और कुछ नहीं। यदि परमेश्वर ने कुछ नया किया, तो क्या आप लोगों को ज्ञात सभी सिद्धांत उस काम से मेल खाने वाले हो सकते हैं जो परमेश्वर करता है? आप की ये बातें केवल नियम हैं और आप लोगों से केवल धर्मशास्त्र का अध्ययन करवा रहे हैं: आप उन्हें परमेश्वर के वचन या सत्य का अनुभव करने की अनुमति नहीं दे रहे हैं। इसलिए वे पुस्तकें जिन्हें आप संकलित करते हैं, वे लोगों को केवल धर्मशास्त्र और ज्ञान में, नए सूत्रों, नियमों और प्रथाओं में ही ला सकती हैं। वे लोगों को परमेश्वर के सामने नहीं ला सकती हैं, या लोगों को सत्य को समझने या परमेश्वर की इच्छा को समझने में मदद नहीं कर सकती हैं। आप सोच रहे हैं कि प्रश्न पर प्रश्न पूछने से, जिनके तब आप उत्तर देते हैं, और जिनके लिए आप एक रूपरेखा या सारांश लिखते हैं, इस तरह के व्यवहार से आपके भाई-बहन आसानी से समझ जाएंगे। याद रखने में आसान होने के अलावा, एक नज़र में ये इन प्रश्नों के बारे में स्पष्ट हैं, और आपको लगता है कि इस तरह से कार्य करना बहुत अच्छा है। लेकिन वे जो समझ रहे हैं वह वास्तविक मर्म नहीं है; यह वास्तविकता से भिन्न है और सिर्फ शब्द और सिद्धांत हैं। तो यह बेहतर होगा कि आप इन चीजों को बिल्कुल भी नहीं करें। आप लोगों को ज्ञान को समझने और ज्ञान में निपुणता प्राप्त करने की ओर ले जाने के लिए ये कार्य करते हैं। आप अन्य लोगों को सिद्धान्तों में, धर्म में लाते हैं, और उनसे परमेश्वर का अनुसरण और धार्मिक सिद्धांतों के भीतर परमेश्वर में विश्वास करवाते हैं। क्या तब आप बस पौलुस के समान नहीं हैं? आपको लगता है कि सत्य के ज्ञान में निपुणता प्राप्त करना विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, और उसी तरह परमेश्वर के वचनों के कई अंशों को कंठस्थ करना भी महत्वपूर्ण है। लेकिन लोग परमेश्वर के वचन को कैसे समझते हैं, यह बिल्कुल भी महत्वपूर्ण नहीं है। आप सबको लगता है कि लोगों के लिए ये बहुत आवश्यक है कि वे परमेश्वर के कई वचनों को कंठस्थ करें, कई सिद्धांतों को बोलने में सक्षम हों और परमेश्वर के वचनों के भीतर कई सूत्रों को खोजने में सफल हों। इसलिए, आप हमेशा इन चीजों को व्यवस्थित करना चाहते हैं ताकि हर कोई एक से भजन पत्र से गा रहा हो और एक सी बात कह रहा हो, हर कोई वही सिद्धांत बोलता हो, ताकि हर किसी के पास एक सा ज्ञान हो और हर कोई एक से नियम रखता हो—यही आप लोगों का उद्देश्य है। आप लोग ऐसा करते हैं मानो कि लोगों को बेहतर समझाते हैं, जबकि इसके विपरीत आपको कोई अंदाज़ा नहीं है कि ऐसा करके आप लोगों को उन नियमों के बीच ला रहे हैं जो परमेश्वर के वचनों के सत्य के बाहर हैं।

— "मसीह की बातचीतों के अभिलेख" में "सत्य के बिना परमेश्वर को अपमानित करना आसान है" से उद्धृत

परमेश्वर के वचन में वास्तविक अर्थ की वास्तविक समझ आना कोई सरल बात नहीं है। इस तरह मत सोच: मैं परमेश्वर के वचनों के शाब्दिक अर्थ की व्याख्या कर सकता हूँ, और हर कोई इसे अच्छा कहता है और मुझे शाबाशी देता है, तो यह परमेश्वर के वचन को समझने के रूप में गिना जाता है। यह परमेश्वर के वचन को समझने के समान नहीं है। यदि तूने परमेश्वर के वचन के भीतर से कुछ प्रकाश प्राप्त किया है और तूने परमेश्वर के वचन के वास्तविक महत्व को महसूस किया है, यदि तू परमेश्वर के वचन के महत्व को और वे अंततः जो प्राप्त करेंगे, उसको व्यक्त कर सकता है, एक बार यह सब स्पष्ट हो जाने पर यह परमेश्वर के वचन को कुछ स्तर तक समझने के रूप में गिना जाता है। तो, परमेश्वर के वचन को समझना इतना आसान नहीं है। सिर्फ इसलिए कि तू परमेश्वर के वचन के पत्र की एक लच्छेदार व्याख्या दे सकता है, इसका यह अर्थ नहीं है कि तू इसे समझता है। भले ही तू परमेश्वर के वचन के पत्र की कितनी ही व्याख्या क्यों न कर सकता हो, यह अभी भी मनुष्य की कल्पना और उसके सोचने का तरीका है—यह बेकार है। … यदि तू इसकी व्याख्या शाब्दिक रूप से या अपनी स्वयं की सोच या कल्पना से करता है, तो तेरी समझ वास्तविक नहीं है, भले ही तू कितनी भी वाक्पटुता से व्याख्या कर सकता हो। यह संभव है कि तू संदर्भ से बाहर भी अर्थ निकाल सकता हो और परमेश्वर के वचन का ग़लत अर्थ निकाल सकता हो, यह और भी अधिक तकलीफ़देह है। तो, सत्य मुख्य रूप से परमेश्वर के वचन को जानने के माध्यम से पवित्र आत्मा से प्रबुद्धता प्राप्त करके प्राप्त किया जाता है। उसके वचन के शाब्दिक अर्थ को समझना या समझाने में सक्षम होना यह सत्य को प्राप्त करने के रूप में नहीं गिना जाता है। यदि तुझे केवल उसके वचन के पत्र की व्याख्या करने की आवश्यकता है, तो पवित्र आत्मा से प्रबुद्धता का मतलब ही क्या होगा? उस मामले में तुझे कुछ निश्चित स्तर की शिक्षा की आवश्यकता होगी, और अशिक्षित काफी कठिन परिस्थितियों में होगा। परमेश्वर का कार्य कुछ ऐसा नहीं है जिसे मानव मस्तिष्क द्वारा समझा जा सकता है। परमेश्वर के वचन की एक सच्ची समझ मुख्य रूप से पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता पर निर्भर करती है; सत्य को प्राप्त करने की प्रक्रिया ऐसी ही है।

— "मसीह की बातचीतों के अभिलेख" में "मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें" से उद्धृत

यदि तुम सभी ने बहुतायत से परमेश्वर के वचन पढ़े हैं किन्तु सिर्फ पाठ का अर्थ समझते हो और तुम लोगों के पास अपने-अपने व्यावहारिक अनुभवों के जरिए परमेश्वर का अपने व्यावहारिक अनुभव से प्राप्त प्राथमिक ज्ञान नहीं है, तो तुम परमेश्वर के वचन को नहीं जान पाओगे। जहाँ तक यह बात तुम से सम्बंधित है, परमेश्वर के वचन तुम्हारे लिए जीवन नहीं है, किन्तु बस निर्जीव शब्‍द हैं। और यदि तुम केवल निर्जीव शब्‍दों को थामे रहोगे, तो तुम परमेश्वर के वचन का सार समझ नहीं सकते हो, न ही तुम उसकी इच्छा को समझोगे। जब तुम अपने वास्तविक अनुभवों में उसके वचन का अनुभव करते हो केवल तभी परमेश्वर के वचन का आध्यात्मिक अर्थ स्वयं को तुम्हारे लिए खोल देगा, और यह केवल अनुभव में होता है कि तुम बहुत सारे सत्य के आध्यात्मिक अर्थ को समझ सकते हो। और केवल अनुभव के जरिए तुम परमेश्वर के वचन के भेदों का खुलासा कर सकते हो। यदि तुम इसे अभ्यास में न लाओ, तो भले ही परमेश्वर के वचन कितने भी स्पष्ट हों, एकमात्र चीज़ जो तुम समझते हो वह है खोखले शब्‍द एवं सिद्धांत, जो तुम्हारे लिए धार्मिक नियम बन चुके हैं। क्या फरीसियों ने भी ऐसा ही नहीं किया था? यदि तुम लोग परमेश्वर के वचन का अभ्यास और उसका अनुभव करते हो, तो यह तुम लोगों के लिए व्यावहारिक बन जाता है; यदि तुम इसका अभ्यास करने की कोशिश नहीं करते हो, तो परमेश्वर का वचन तुम्हारे लिए तीसरे स्वर्ग की किवदंती से बस कुछ ही अधिक होता है। …

… बहुत से लोग मात्र परमेश्वर के वचन के पाठ को समझकर ही संतुष्ट हो जाते हैं और उसकी गहराई के अनुभव का अभ्यास किये बगैर अपने आपको सिद्धान्तों से सुसज्जित करने की ओर ध्यान केन्द्रित करते हैं; क्या यह फरीसियों का तरीका नहीं है? तब, किस प्रकार यह वाक्यांश कि "परमेश्वर का वचन जीवन है" उनके लिए सही हो सकता है? जब मनुष्य परमेश्वर के वचन का अभ्यास करता है, केवल तभी उसका जीवन सचमुच में फूल के समान खिल सकता है; यह बस यूं ही उसके वचन को पढ़ने के द्वारा नहीं हो सकता है। यदि यह तुम्हारा विश्वास है कि केवल जीवन पाने और उच्चता पाने के लिए ही परमेश्वर के वचन को समझने की आवश्यकता है, तो तुम्हारी समझ विकृत हो गई है। जब तुम सत्य का अभ्यास करते हो तभी परमेश्वर का वचन सही ढंग से समझ आता है, और तुम्‍हें यह समझना होगा कि "केवल सत्य का अभ्यास करने के द्वारा ही इसे समझा जा सकता है।"

— "वचन देह में प्रकट होता है" में "सत्य को समझ लेने के बाद उसका अभ्यास करो" से उद्धृत

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