अंतिम दिनों का मसीह - सर्वशक्तिमान परमेश्वर

परमेश्वर को सदोम नष्ट करना ही होगा

उत्पत्ति 18:26 यहोवा ने कहा, "यदि मुझे सदोम में पचास धर्मी मिलें, तो उनके कारण उस सारे स्थान को छोड़ूँगा।"

उत्पत्ति 18:29 फिर उसने उससे यह भी कहा, "कदाचित् वहाँ चालीस मिलें।" उसने कहा, "तो भी मैं ऐसा न करूँगा।"

उत्पत्ति 18:30 फिर उसने कहा, "कदाचित् वहाँ तीस मिलें।" उसने कहा, "तो भी मैं ऐसा न करूँगा।"

उत्पत्ति 18:31 फिर उसने कहा, "कदाचित् उसमें बीस मिलें।" उसने कहा, "मैं उसका नाश न करूँगा।"

उत्पत्ति 18:32 फिर उसने कहा, "कदाचित् उसमें दस मिलें।" उसने कहा, "तो भी मैं उसका नाश न करूँगा।"

ये कुछ उद्धरण हैं जिन्हें मैंने बाइबल से चुना है। वे पूर्ण, मूल संस्करण नहीं हैं। यदि तुम लोग उन्हें देखना चाहते हो, तो तुम लोग स्वयं उन्हें बाइबल में देख सकते हो; समय बचाने के लिए, मैंने मूल विषय-वस्तु का हिस्सा हटा दिया है। यहाँ मैंने केवल अनेक मुख्य अंशों और वाक्यों को चुना है और ऐसे अनेक वाक्यों को छोड़ दिया है जिनका हमारी आज की संगति से कोई सम्बन्ध नहीं है। उन सभी अंशों और विषय-वस्तु में जिनके बारे में हम संगति करते हैं, हमारा ध्यान कहानियों के विवरणों और इन कहानियों में मनुष्य के आचरण की उपेक्षा कर देता है; उसके बजाए, हम केवल उस समय के परमेश्वर के विचारों और मतों के बारे में बात करते हैं। परमेश्वर के विचारों और मतों में, हम परमेश्वर के स्वभाव को देखेंगे, और उन सभी चीज़ों से जो परमेश्वर ने की थीं, हम सच्चे स्वयं परमेश्वर को देखेंगे—और इसमें हम अपने उद्देश्य को प्राप्त करेंगे।

परमेश्वर केवल ऐसे लोगों की ही परवाह करता है जो उसके वचनों का पालन करने और उसकी आज्ञाओं का अनुसरण करने में समर्थ हैं

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ऊपर दिए गए अंशों में अनेक मुख्य शब्द समाविष्ट हैं: संख्याएँ। पहला, यहोवा परमेश्वर ने कहा कि यदि उसे नगर में पचास धार्मिक मिल गए, तो वह उस समस्त स्थान को छोड़ देगा, कहने का मतलब है कि, वह नगर को नष्ट नहीं करेगा। तो क्या वहाँ, सदोम के भीतर, वास्तव में पचास धार्मिक थे? नहीं थे। इसके तुरन्त बाद, अब्राहम ने परमेश्वर से क्या कहा? उसने कहा, कदाचित् वहाँ चालीस मिले तो? और परमेश्वर ने कहा, मैं नष्ट नहीं करूँगा। इसके बाद, अब्राहम ने कहा, कदाचित वहाँ तीस मिले तो? परमेश्वर ने कहा, मैं नष्ट नहीं करूँगा। यदि वहाँ बीस मिले तो? मैं नष्ट नहीं करूँगा। दस मिले तो? मैं नष्ट नहीं करूँगा। क्या नगर के भीतर, वास्तव में, दस धार्मिक थे? वहाँ दस भी नहीं थे—बल्कि एक ही था। और यह एक कौन था? वह लूत था। उस समय, सदोम में मात्र एक ही धार्मिक व्यक्ति था, परन्तु जब बात इस संख्या की आई तो क्या परमेश्वर बहुत कठोर था या बलपूर्वक माँग कर रहा था? नहीं, वह कठोर नहीं था। और इसलिए, जब मनुष्य पूछता रहा, "चालीस हों तो क्या?" "तीस हों तो क्या?" जब तक वह "दस हों तो क्या?" तक पहुँचा तब तक परमेश्वर ने कहा, "यदि वहाँ मात्र दस भी होंगे तो मैं उस नगर को नष्ट नहीं करूँगा; मैं उसे छोड़ दूँगा, और इन दस लोगों के अतिरिक्त अन्य लोगों को भी माफ कर दूँगा।" दस की संख्या काफी शोचनीय रही होती, परन्तु ऐसा हुआ कि, सदोम में, वास्तव में, उतनी संख्या में भी धार्मिक लोग नहीं थे। तो तुम देखो, कि परमेश्वर की नज़रों में, नगर के लोगों का पाप और उनकी दुष्टता ऐसी थी कि परमेश्वर के पास उन्हें नष्ट करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। परमेश्वर का क्या अभिप्राय था जब उसने कहा कि वह उस नगर को नष्ट नहीं करेगा यदि उस में पचास धार्मिक हुए? परमेश्वर के लिए ये संख्याएँ महत्वपूर्ण नहीं थीं। जो महत्वपूर्ण था वह यह कि उस नगर में ऐसे धार्मिक थे या नहीं जिन्हें वह चाहता था। यदि उस नगर में मात्र एक ही धार्मिक मनुष्य होता, तो परमेश्वर उन्हें नगर के विनाश के कारण हानि पहुँचाने की अनुमति नहीं देता। इसका अर्थ यह है कि, इस बात की परवाह किए बिना कि परमेश्वर उस नगर को नष्ट करने जा रहा था या नहीं, और इस बात की परवाह किए बिना कि उसके भीतर कितने धार्मिक थे, परमेश्वर के लिए यह पापी नगर श्रापित और घिनौना था, और इसे नष्ट किया जाना चाहिए, इसे परमेश्वर की दृष्टि से ओझल हो जाना चाहिए, जबकि धार्मिकों को बने रहना चाहिए। युग चाहे जो भी हो, मनुष्यजाति के विकास की अवस्था चाहे जो भी हो, परमेश्वर की प्रवृत्ति नहीं बदलती है: वह दुष्टता से घृणा करता है, और अपनी नज़रों में धार्मिकों की परवाह करता है। परमेश्वर की यह स्पष्ट प्रवृत्ति परमेश्वर के सार का सच्चा प्रकाशन भी है। क्योंकि वहाँ नगर के भीतर केवल एक ही धार्मिक व्यक्ति था, इसलिए परमेश्वर अब और नहीं हिचकिचाया। अंतिम परिणाम यह था कि सदोम को आवश्यक रूप से नष्ट किया जाएगा। इसमें तुम लोग क्या देखते हो? उस युग में, परमेश्वर उस नगर को नष्ट नहीं करता यदि उसके भीतर पचास धार्मिक होते, न ही तब करता यदि दस धार्मिक होते, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर मनुष्यजाति को क्षमा करने और उसके प्रति सहिष्णु होने का निर्णय लेता, या उन कुछ लोगों की वजह से मार्गदर्शन का कार्य करता जो उसका आदर करने और उसकी आराधना करने में समर्थ होते। परमेश्वर मनुष्य के धार्मिक कर्मों में बड़ा विश्वास करता है, वह ऐसे लोगों में बड़ा विश्वास करता है जो उसकी आराधना करने में समर्थ हैं, और वह ऐसे लोगों में बड़ा विश्वास करता है जो उसके सामने भले कर्मों को करने में समर्थ हैं।

परमेश्वर उन लोगों के प्रति प्रचुरता से करुणाशील है जिनकी वह परवाह करता है, और उन लोगों के प्रति गंभीरता से कुपित है जिनसे वह घृणा और जिन्हें अस्वीकार करता है

बाइबल के विवरणों में, क्या सदोम में परमेश्वर के दस सेवक थे? नहीं, ऐसा नहीं था! क्या वह नगर परमेश्वर के द्वारा छोड़ दिए जाने के योग्य था? उस नगर में केवल एक व्यक्ति—लूत—ने परमेश्वर के संदेशवाहकों की अगवानी की थी। इसका आशय यह है कि उस नगर में परमेश्वर का केवल एक ही सेवक था, और इसलिए परमेश्वर के पास लूत को बचाने और सदोम के नगर को नष्ट करने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं था। हो सकता है कि अब्राहम और परमेश्वर के बीच के संवाद साधारण दिखाई दें, परन्तु वे एक बहुत गम्भीर बात की व्याख्या करते हैं: परमेश्वर के कार्यों के सिद्धान्त हैं, और किसी निर्णय को लेने से पहले वह अवलोकन और चिंतन करते हुए लम्बा समय बिताएगा; इससे पहले कि सही समय आए, वह निश्चित रूप से कोई निर्णय नहीं लेगा या एकदम से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचेगा। अब्राहम और परमेश्वर के बीच के संवाद हमें यह दिखाते हैं कि सदोम को नष्ट करने का परमेश्वर का निर्णय जरा सा भी ग़लत नहीं था, क्योंकि परमेश्वर पहले से ही जानता था कि उस नगर में चालीस धार्मिक नहीं थे, न ही तीस धार्मिक थे, न ही बीस धार्मिक थे। वहाँ दस भी नहीं थे। उस नगर में एकमात्र धार्मिक व्यक्ति लूत था। सदोम में जो कुछ भी हुआ था उसका और उसकी परिस्थितियों का परमेश्वर के द्वारा अवलोकन किया गया था, और परमेश्वर उनसे अपनी हथेली के समान परिचित था। इस प्रकार, उसका निर्णय ग़लत नहीं हो सकता था। इसके विपरीत, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता की तुलना में, मनुष्य बहुत संवेदनशून्य, बहुत मूर्ख और अज्ञानी, और बहुत निकटदर्शी है। यह वही बात है जिसे हम अब्राहम और परमेश्वर के बीच के संवादों में देखते हैं। परमेश्वर आरम्भ से लेकर आज के दिन तक अपने स्वभाव को प्रकट करता रहा है। उसी प्रकार, यहाँ पर भी परमेश्वर का स्वभाव है जिसे हमें समझना चाहिए। संख्याएँ सरल हैं, और किसी भी चीज़ को प्रदर्शित नहीं करती हैं, परन्तु यहाँ पर परमेश्वर के स्वभाव की एक अति महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है। परमेश्वर पचास धार्मिकों की वजह से नगर को नष्ट नहीं करेगा। क्या यह परमेश्वर की करुणा के कारण है? क्या यह उसके प्रेम एवं सहिष्णुता की वजह से है? क्या तुम लोगों ने परमेश्वर के स्वभाव के इस पहलू को समझा है? यदि वहाँ केवल दस धार्मिक भी होते, तब भी परमेश्वर ने उन दस धार्मिकों की वजह से उस नगर को नष्ट नहीं किया होता। यह परमेश्वर की सहिष्णुता और प्रेम है या नहीं है? उन धार्मिक लोगों के प्रति परमेश्वर की करुणा, सहिष्णुता और चिंता की वजह से, उसने उस नगर को नष्ट नहीं किया होता। यह परमेश्वर की सहिष्णुता है। और अंत में, हम क्या परिणाम देखते हैं? जब अब्राहम ने कहा, "कदाचित् उसमें दस मिलें," परमेश्वर ने कहा, "मैं उसका नाश न करूँगा।" उसके बाद, अब्राहम ने और कुछ नहीं कहा—क्योंकि सदोम के भीतर ऐसे दस धार्मिक नहीं थे जिनकी ओर उसने संकेत किया था, और उसके पास कहने के लिए और कुछ नहीं था, और उस समय उसने समझा कि क्यों परमेश्वर ने सदोम को नष्ट करने का संकल्प किया था। इसमें, तुम लोग परमेश्वर के किस स्वभाव को देखते हो? परमेश्वर ने किस प्रकार का संकल्प किया था? अर्थात्, यदि उस नगर में दस धार्मिक नहीं होते, तो परमेश्वर उसके अस्तित्व की अनुमति नहीं देता, और अनिवार्य रूप से उसे नष्ट कर देता। क्या यह परमेश्वर का कोप नहीं है? क्या यह कोप परमेश्वर के स्वभाव को दर्शाता है? क्या यह स्वभाव परमेश्वर के पवित्र सार का प्रकाशन है? क्या यह परमेश्वर के धार्मिक सार का प्रकाशन है, जिसका अपमान मनुष्य को बिल्कुल नहीं करना चाहिए? इस बात की पुष्टि के बाद कि सदोम में दस धार्मिक नहीं थे, यह निश्चित था कि परमेश्वर नगर को नष्ट करेगा, और उस नगर के भीतर के लोगों को कठोरता से दण्ड देगा, क्योंकि वे परमेश्वर का विरोध करते थे, और वे बहुत ही गन्दे और भ्रष्ट थे।

हमने क्यों इन अंशों का इस तरह से विश्लेषण किया है? क्योंकि ये कुछ साधारण वाक्य परमेश्वर की अतिशय करुणा और अत्यंत कोप वाले स्वभाव की पूर्ण अभिव्यक्ति देते हैं। धार्मिकों को सँजोने, और उन पर करुणा करने, उन्हें सहने, और उनकी देखभाल करने के साथ-साथ ही, परमेश्वर के हृदय में सदोम के उन सभी लोगों के लिए अत्यंत घृणा थी जिन्हें भ्रष्ट किया जा चुका था। यह अतिशय करुणा और अत्यंत कोप था, या नहीं? परमेश्वर ने किस उपाय से उस नगर को नष्ट किया? आग से। और क्यों उसने आग का उपयोग करके उसे नष्ट किया? जब तुम किसी चीज़ को आग के द्वारा जलाए जाते हुए देखते हो, या जब तुम किसी चीज़ को जलाने ही वाले होते हो, तो उसके प्रति तुम्हारी भावनाएँ क्या होती हैं? तुम इसे क्यों जलाना चाहता हो? क्या तुम महसूस करते हो कि तुम्हें इसकी अब और आवश्यकता नहीं है, कि तुम इसे अब और नहीं देखना चाहते हो? क्या तुम इसका परित्याग करना चाहते हो? परमेश्वर के द्वारा आग के उपयोग का अर्थ है परित्याग, और घृणा, और यह कि वह सदोम को अब और देखना नहीं चाहता था। यही वह भावना थी जिसने परमेश्वर से आग द्वारा सदोम का सम्पूर्ण विनाश करवाया। आग का उपयोग दर्शाता है कि परमेश्वर आखिर कितना क्रोधित था। परमेश्वर की करुणा और सहिष्णुता तो वास्तव में विद्यमान है, किन्तु जब वह अपने कोप को उन्मुक्त करता है तो परमेश्वर की पवित्रता और धार्मिकता मनुष्य को परमेश्वर का वह पहलू भी दिखाती है जो किसी अपमान को नहीं सहती है। जब मनुष्य परमेश्वर की आज्ञाओं को पूरी तरह से मानने में सक्षम होता है और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करता है, तो परमेश्वर मनुष्य के प्रति अपनी करुणा से भरपूर होता है; जब मनुष्य भ्रष्टता, उसके प्रति घृणा और शत्रुता से भर जाता है, तो परमेश्वर बहुत अधिक क्रोधित होता है। और वह किस हद तक अत्यंत क्रोधित होता है? उसका कोप तब तक बना रहेगा जब तक कि वह मनुष्य के प्रतिरोध और दुष्ट कर्मों को फिर कभी नहीं देखता है, जब तक वे उसकी नज़रों के सामने से दूर नहीं हो जाते हैं। केवल तभी परमेश्वर का क्रोध गायब होगा। दूसरे शब्दों में, भले ही वह व्यक्ति कोई भी क्यों न हो, यदि उसका हृदय परमेश्वर से दूर हो गया है, और कभी वापस नहीं लौटने के लिए, परमेश्वर से फिर गया है, तो फिर इसकी परवाह किए बिना कि किस प्रकार, सभी प्रकटनों के लिए या अपनी व्यक्तिपरक इच्छाओं के संदर्भ में, वो अपने शरीर में या अपनी सोच में परमेश्वर की आराधना करने, उसका अनुसरण करने और उसकी आज्ञा मानने की इच्छा करता है, जैसे ही उसका हृदय परमेश्वर से फिरेगा, परमेश्वर का कोप बिना रूके उन्मुक्त हो जाएगा। यह ऐसे होगा कि जब मनुष्य को पर्याप्त अवसर देने के बाद, परमेश्वर अपने कोप को गंभीरता से उन्मुक्त कर देगा, तो एक बार उसके उन्मुक्त हो जाने के बाद इसे वापस लेने का कोई मार्ग नहीं होगा, और वह ऐसे मनुष्य के प्रति फिर कभी भी करुणाशील और सहिष्णु नहीं होगा। यह परमेश्वर के स्वभाव का एक पक्ष है जो किसी अपमान को सहन नहीं करता है। यहाँ, यह लोगों को सामान्य प्रतीत होता है कि परमेश्वर एक नगर को नष्ट करेगा, क्योंकि, परमेश्वर की नज़रों में, पाप से भरा हुआ कोई नगर अस्तित्व में और निरन्तर बना नहीं रह सकता था, और यह तर्कसंगत था कि इसे परमेश्वर के द्वारा नष्ट कर दिया जाना चाहिए। फिर भी परमेश्वर के द्वारा सदोम के विनाश के पहले और उसके बाद जो घटित हुआ उसमें, हम परमेश्वर के स्वभाव की समग्रता को देखते हैं। वह उन चीज़ों के प्रति सहिष्णु और करुणाशील है जो उदार, सुन्दर और भली हैं; जो चीज़ें बुरी, पापमय और दुष्ट हैं, उनके प्रति वह गहनता से कुपित होता है, कुछ इस तरह कि उसका कोप रुकता नहीं है। ये परमेश्वर के स्वभाव के दो प्रमुख और अति महत्वपूर्ण पहलू: अतिशय करुणा और अत्यंत कोप हैं और, इसके अतिरिक्त, इन्हें आरम्भ से लेकर अंत तक परमेश्वर के द्वारा प्रकट किया गया है। तुम लोगों में से अधिकतर परमेश्वर की करुणा का कुछ अनुभव कर चुके हैं, किन्तु तुम में से बहुत कम लोगों ने परमेश्वर के कोप की सराहना की है। परमेश्वर की दया और करूणा को प्रत्येक व्यक्ति में देखा जा सकता है; अर्थात्, परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के प्रति बहुत अधिक करुणाशील रहा है। फिर भी ऐसा कहा जा सकता है, परमेश्वर कभी-कभार—या, कभी नहीं—तुम लोगों के बीच में से किसी भी व्यक्ति पर या लोगों के किसी भाग पर अत्यंत क्रोधित हुआ है। शान्त हो जाओ! कभी न कभी, प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा परमेश्वर के कोप को देखा और अनुभव किया जाएगा, किन्तु अभी वह समय नहीं आया है। और ऐसा क्यों है? क्योंकि जब परमेश्वर किसी के प्रति लगातार क्रोधित होता है, अर्थात्, जब वह अपने अत्यंत कोप को उन पर उन्मुक्त करता है, तो इसका अर्थ है कि उसने काफी समय से उस व्यक्ति से घृणा की है और उसे अस्वीकार किया है, यह कि वह उसके अस्तित्व से नफ़रत करता है, और वह उसके अस्तित्व को सहन नहीं कर सकता है; जैसे ही उसका क्रोध उस पर आएगा, वो लुप्त हो जाएएगा। आज, परमेश्वर का कार्य अभी तक उस मुकाम पर नहीं पहुँचा है। परमेश्वर के बहुत अधिक क्रोधित हो जाने पर तुम लोगों में से कोई भी उसे सहन करने में समर्थ नहीं होगा। तो तुम लोग इसे समझो, कि इस समय परमेश्वर तुम सभी लोगों के प्रति अतिशय करुणाशील है, और तुम लोगों ने अभी तक उसका अत्यंत क्रोध नहीं देखा है। यदि ऐसे लोग हैं जो यकीन करने में असमर्थ बने रहते हैं, तो तुम लोग याचना कर सकते हो कि परमेश्वर का कोप तुम लोगों के ऊपर आ जाए, ताकि तुम लोग अनुभव कर सको कि मनुष्य के लिए परमेश्वर का क्रोध और उसका अपमान न किए जाने योग्य स्वभाव वास्तव में अस्तित्व में है या नहीं। क्या तुम लोग ऐसी हिम्मत कर सकते हो?

"वचन देह में प्रकट होता है" से उद्धृत

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