अंतिम दिनों का मसीह - सर्वशक्तिमान परमेश्वर

मनुष्य का पुत्र तो सब्त के दिन का भी प्रभु है

  1. मत्ती 12:1 उस समय यीशु सब्त के दिन खेतों में से होकर जा रहा था, और उसके चेलों को भूख लगी तो वे बालें तोड़-तोड़कर खाने लगे।

  2. मत्ती 12:6-8 पर मैं तुम से कहता हूँ कि यहाँ वह है जो मन्दिर से भी बड़ा है। यदि तुम इसका अर्थ जानते, "मैं दया से प्रसन्न होता हूँ, बलिदान से नहीं," तो तुम निर्दोष को दोषी न ठहराते। मनुष्य का पुत्र तो सब्त के दिन का भी प्रभु है।

  आओ पहले हम इस अंश को देखें: "उस समय यीशु सब्त के दिन खेतों में से होकर जा रहा था, और उसके चेलों को भूख लगी तो वे बालें तोड़-तोड़कर खाने लगे।"

  हमने इस अंश को क्यो चुना है? इसका परमेश्वर के स्वभाव से क्या सम्बन्ध है? इस पाठ में, पहली चीज़ जो हम जानते हैं वह है कि यह सब्त का दिन था, परन्तु प्रभु यीशु बाहर गया और अपने चेलों को अनाज के खेतों में ले गया। इससे ज्यादा "चौंका देने वाली बात" क्या हो सकती है कि वे मकई की "बालें तोड़-तोड़कर खाने लगे।" व्यवस्था के युग में, यहोवा परमेश्वर की व्यवस्था थी कि लोग सब्त के दिन यूँ ही बाहर नहीं जा सकते थे और गतिविधियों में भाग नहीं ले सकते थे—बहुत सी ऐसी बातें थीं जिन्हें सब्त के दिन नहीं किया जा सकता था। प्रभु यीशु की ओर से किया गया यह कार्य उनके लिए पेचीदा था जो एक लम्बे समय से व्यवस्था के अधीन जीवन बिता रहे थे, और इसने आलोचना को भी भड़काया था। जहाँ तक उनके भ्रम और इस बात का संबंध है कि यीशु ने जो किया उसके बारे में उन्होंने किस प्रकार बात की, हम फिलहाल उसे एक ओर रखेंगे और पहले यह चर्चा करेंगे कि प्रभु यीशु ने, सभी दिनों में से, सब्त के दिन ही ऐसा करना क्यों चुना, और इस कार्य के द्वारा वह उन लोगों से क्या कहना चाहता था जो व्यवस्था के अधीन रह रहे थे। यह इस अंश और परमेश्वर के स्वभाव के बीच का संबंध है जिसके बारे में मैं तुमसे बात करना चाहता हूँ।

  जब प्रभु यीशु मसीह आया, तो उसने लोगों से संवाद करने के लिए अपने व्यावहारिक कार्यों का उपयोग कियाः परमेश्वर ने व्यवस्था के युग को अलविदा किया था और नए कार्य का प्रारम्भ किया था, और इस नए कार्य को सब्त का पालन करने की आवश्यकता नहीं थी; जब परमेश्वर सब्त के दिन की सीमाओं से बाहर आ गया, तो यह उसके नए कार्य का बस एक पूर्वानुभव था, और उसका सचमुच का महान कार्य लगातार जारी हो रहा था। जब प्रभु यीशु ने अपना कार्य प्रारम्भ किया, तो उसने पहले से ही व्यवस्था की जंज़ीरों को पीछे छोड़ दिया था, और उस युग के विधि-विधानों और सिद्धांतों को तोड़ दिया था। उसमें, व्यवस्था से जुड़ी किसी भी बात का निशान नहीं था; उसने उसे पूर्णत: उतार कर फेंक दिया था तथा उसका अब और अनुसरण नहीं करता था, और उसने मनुष्यजाति से उसका अब और अनुसरण करने की अपेक्षा नहीं की थी। इसलिए तुम यहाँ देखते हो कि प्रभु यीशु सब्त के दिन मकई के खेतों से होकर गुज़रा, प्रभु ने आराम नहीं किया, बल्कि बाहर काम करता रहा। उसका यह कार्य लोगों की धारणाओं के लिए एक आघात था और इसने उन्हें सूचित किया कि वह व्यवस्था के अधीन अब और जीवन नहीं बिताएगा, और यह कि उसने सब्त की सीमाओं को छोड़ दिया है और एक नई कार्यशैली के साथ वह मनुष्यजाति के सामने और उनके बीच एक नई छवि में प्रकट हुआ है। उसके इस कार्य ने लोगों को बताया कि वह अपने साथ एक नया कार्य लाया है जो व्यवस्था से बाहर जाने और सब्त से बाहर जाने से आरम्भ हुआ था। जब परमेश्वर ने अपना नया कार्य कार्यान्वित किया, तो वह अतीत से अब और नहीं चिपका रहा, और वह व्यवस्था के युग की विधियों के बारे में अब और चिन्तित नहीं था। न ही वह पूर्ववर्ती युग के अपने कार्य से प्रभावित था, बल्कि उसने सब्त के दिन में भी सामान्य रूप से कार्य किया और जब उसके चेले भूखे थे, तो वे मकई की बालें तोड़कर खा सकते थे। यह सब कुछ परमेश्वर की निगाहों में बिल्कुल सामान्य था। परमेश्वर के पास अधिकांश कार्य करने के लिए जिसे वह करना चाहता है और अधिकांश बातें कहने के लिए जिन्‍हें वह कहना चाहता है, एक नई शुरूआत हो सकती है। एक बार जब उसने एक नई शुरूआत कर दी, तो वह न तो फिर से अपने पिछले कार्य का उल्लेख करता है और न ही उसे जारी रखता है। क्योंकि परमेश्वर के पास उसके कार्य के स्वयं के सिद्धांत हैं। जब वह नया कार्य शुरू करना चाहता है, तो यह तब होता है जब वह मनुष्यजाति को अपने कार्य के एक नए स्तर में पहुँचाना चाहता है, और जब उसका कार्य एक उच्चतर चरण में प्रवेश कर लेता है। यदि लोग लगातार पुरानी कहावतों या विधि-विधानों के अनुसार काम करते रहेंगे या उन्हें निरन्तर मज़बूती से पकड़ें रहेंगे, तो इसे याद नहीं रखेगा या इसकी प्रशंसा नहीं करेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह पहले से ही एक नए कार्य को ला चुका है, और अपने कार्य में एक नए चरण में प्रवेश कर चुका है। जब वह एक नए कार्य को आरम्भ करता है, तो वह मनुष्यजाति के सामने पूर्णतः नई छवि में, पूर्णतः नए कोण से, और पूर्णतः नए तरीके से प्रकट होता है ताकि लोग उसके स्वभाव के भिन्न-भिन्न पहलुओं को और उसके स्वरूप को देख सकें। यह उसके नए कार्य में उसके लक्ष्यों में से एक है। परमेश्वर पुराने को थामे नहीं रहता है या घिसे-पिटे मार्ग को नहीं लेता है; जब वह कार्य करता और बोलता है तो यह उतना निषेधात्मक नहीं होता है जितना लोग कल्पना करते हैं। परमेश्वर में, सभी स्वतंत्र और मुक्त हैं, और कोई निषेधात्मकता नहीं है, कोई लाचारी नहीं है—जो वह मनुष्यजाति के लिए लाता है वह सम्पूर्ण आज़ादी और मुक्ति है। वह एक जीवित परमेश्वर है, एक ऐसा परमेश्वर जो असलियत में, और सचमुच में अस्तित्व में है। वह कोई कठपुतली या मिट्टी की मूर्ति नहीं है, और वह उन मूर्तियों से बिल्कुल भिन्न है जिन्हें लोग प्रतिष्ठापित करते हैं और जिनकी आराधना करते हैं। वह जीवित और जीवन्त है और उसके कार्य और वचन मनुष्यों के लिए जो लेकर आते हैं वे हैं सम्पूर्ण जीवन और ज्योति, सम्पूर्ण स्वतन्त्रता और मुक्ति, क्योंकि वह सत्य, जीवन, और मार्ग को धारण करता है—और वह अपने किसी भी कार्य में किसी भी चीज़ के द्वारा विवश नहीं होता है। लोग चाहे कुछ भी क्यों न कहें और चाहे वे उसके नए कार्य को किसी भी प्रकार से क्यों न देखें या कैसे भी उसका आकलन क्‍यों न करें, वह बिना किसी रुकावट के अपने कार्य को पूरा करेगा। वह किसी की भी धारणाओं या उसके कार्य और वचनों पर उठी अँगुलियों के बारे में, या अपने नए कार्य के लिए उनके कठोर विरोध और प्रतिरोध की भी चिन्ता नहीं करेगा। जो परमेश्वर करता है उसे मापने या परिभाषित करने, उसके कार्य को बदनाम करने, या तितर-बितर करने या उसमें तोड़फोड़ करने के लिए, संपूर्ण सृष्टि में कोई भी मानवीय तर्क, या मानवीय कल्पनाओं, ज्ञान, या नैतिकता का उपयोग नहीं कर सकता है। उसके कार्य में और जो वह करता है उसमें कोई निषेधात्मकता नहीं है, और उसे किसी मनुष्य, चीज़ या पदार्थ के द्वारा लाचार नहीं किया जाएगा, और उसे किसी शत्रुतापूर्ण ताक़तों के द्वारा तितर-बितर नहीं किया जाएगा। अपने नए कार्य में, वह एक सर्वदा विजयी राजा है, और किन्हीं भी शत्रुतापूर्ण ताक़तों और मनुष्यजाति में से सभी विधर्मों और भ्रांतियों को उसकी चरण-पीठ के नीचे कुचल दिया जाता है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह अपने कार्य के किस नए स्तर पर काम कर रहा है, इसे मनुष्यजाति के बीच विकसित और विस्तारित अवश्य होना चाहिए, इसे संपूर्ण विश्व में तब तक अबाधित रूप से अवश्य कार्यान्वित किया जाना चाहिए जब तक कि उसका महान कार्य पूर्ण नहीं हो जाता है। यह परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि, और उसका अधिकार और उसकी सामर्थ्य है। इस प्रकार, प्रभु यीशु मसीह खुलकर बाहर जा सकता था और सब्त के दिन कार्य कर सकता था क्योंकि उसके हृदय में कोई नियम नहीं थे, और वहाँ मनुष्यजाति से उत्पन्न कोई ज्ञान और सिद्धांत नहीं था। उसके पास जो था वह परमेश्वर का नया कार्य और उसका मार्ग था, और उसका कार्य मनुष्यजाति को स्वतन्त्र करना था, उसे मुक्त करना था, उन्हें प्रकाश में बने रहने की अनुमति देना था, और उन्हें जीने की अनुमति देना था। और जो मूर्तियों या झूठे ईश्वरों की पूजा करते हैं वे, सभी प्रकार के नियमों और वर्जनाओं से नियंत्रित, हर दिन शैतान के बन्धनों में जीते हैं—आज एक चीज़ का निषेध होता है, कल किसी दूसरी चीज़ का निषेध होता है—उनके जीवन में कोई स्वतन्त्रता नहीं है। वे जंज़ीरों में जकड़े हुए कैदियों के समान हैं जिनके पास कोई खुशी नहीं है जिसके बारे में वे बात करें। "निषेध" क्या दर्शाता है? यह विवशता, बन्धनों, और दुष्टता को दर्शाता है। जैसे ही कोई व्यक्ति किसी मूर्ति की आराधना करता है तो वह एक झूठे ईश्वर की आराधना कर रहा होता है, वह एक दुष्ट आत्मा की आराधना कर रहा होता है। प्रतिबन्ध इसके साथ आता है। तुम यह या वह नहीं खा सकते हो, तुम आज बाहर नहीं जा सकते हो, तुम कल अपना चूल्हा नहीं जला सकते हो, तुम अगले दिन नए घर में नहीं जा सकते हो, विवाह तथा अन्तिम क्रिया के लिए, और यहाँ तक कि बच्चे को जन्म देने के लिए भी कुछ निश्चित दिनों को ही चुनना होगा। यह क्या कहलाता है? यही प्रतिबन्ध कहलाता है; यह मनुष्यजाति का बंधन है, और ये शैतान की जंज़ीरें हैं और दुष्ट आत्माएँ इन्हें नियन्त्रित कर रही हैं, और उनके हृदयों और शरीरों को अवरुद्ध कर रही हैं। क्या ये प्रतिबन्ध परमेश्वर के साथ विद्यमान रहते हैं? जब परमेश्वर की पवित्रता की बात करते हैं, तो तुम्हें सबसे पहले यह सोचना चाहिएः कि परमेश्वर के साथ कोई भी निषेध नहीं है। परमेश्वर के वचनों और कार्य में उसके सिद्धांत हैं, किन्तु कोई निषेध नहीं हैं, क्योंकि परमेश्वर स्वयं सत्य, मार्ग, और जीवन है।

  आओ हम निम्नलिखित अंश को देखें: "पर मैं तुम से कहता हूँ कि यहाँ वह है जो मन्दिर से भी बड़ा है। यदि तुम इसका अर्थ जानते, 'मैं दया से प्रसन्न होता हूँ, बलिदान से नहीं,' तो तुम निर्दोष को दोषी न ठहराते। मनुष्य का पुत्र तो सब्त के दिन का भी प्रभु है" (मत्ती 12:6-8)। यहाँ "मन्दिर" किस का इशारा करता है? आसान शब्दों में कहें तो, "मन्दिर" एक शोभायमान, ऊँची इमारत का इशारा करता है, और व्यवस्था के युग में, मन्दिर परमेश्वर की आराधना हेतु याजकों के लिए एक स्थान था। जब प्रभु यीशु ने कहा, "कि यहाँ वह है जो मन्दिर से भी बड़ा है," यहाँ "वह" किसकी ओर इशारा करता है? स्पष्ट रूप से "वह" प्रभु यीशु है जो देह में है, क्योंकि केवल वही मन्दिर से बड़ा था। उन वचनों ने लोगों से क्या कहा? उन्होंने लोगों को मन्दिर से बाहर आने के लिए कहा—परमेश्वर पहले ही बाहर आ चुका था और उसमें अब और कार्य नहीं कर रहा था, इसलिए लोगों को मन्दिर के बाहर परमेश्वर के पदचिह्नों को ढूँढ़ना चाहिए और उसके नए कार्य में उसके कदमों का अनुसरण करना चाहिए। प्रभु यीशु मसीह के इस कथन की पृष्ठभूमि यह थी कि व्यवस्था के अधीन, लोग किसी ऐसी चीज़ के रूप में मन्दिर को देखने के लिए आए थे जो स्वयं परमेश्वर से भी बड़ा था। अर्थात्, लोग परमेश्वर की आराधना करने के बजाए मन्दिर की आराधना करते थे, इसलिए प्रभु यीशु मसीह ने उन्हें सावधान किया कि वे मूर्तियों की आराधना न करें, बल्कि परमेश्वर की आराधना करें क्योंकि वह सर्वोच्च है। इसलिए उसने कहाः "मैं दया से प्रसन्न होता हूँ, बलिदान से नहीं।" यह स्पष्ट है कि प्रभु यीशु की नज़रों में, व्यवस्था के अधीन अधिकांश लोग यहोवा की अब और आराधना नही करते थे, बल्कि मात्र बलिदान की प्रक्रिया से होकर जाते थे, और प्रभु यीशु ने निर्धारित किया था कि यह प्रक्रिया मूर्ति पूजा है। इन मूर्ति पूजकों ने मन्दिर को परमेश्वर से अधिक महान और उच्चतर रूप में देखा था। उनके हृदयों में केवल मन्दिर था, न कि परमेश्वर, और यदि वे मन्दिर को खो देते हैं, तो वे अपने निवास स्थान को भी खो देते हैं। मन्दिर के बिना उनके पास आराधना के लिए कोई जगह नहीं थी और वे बलिदानों को कार्यान्वित नहीं कर सकते थे। उनका तथाकथित निवास स्थान वहाँ है जहाँ से वे यहोवा परमेश्वर की आराधना के झण्डे तले संचालन करते थे, जहाँ उन्हें मन्दिर के टिके रहने और अपने स्वयं के क्रियाकलापों को करने की अनुमति दी जाती थी। उनके तथाकथित बलिदानों को चढ़ाना मन्दिर में उनकी सेवा आयोजित करने के बहाने बस उनके स्वयं के व्यक्तिगत शर्मनाक व्यवहारों को कार्यान्वित करने के लिए था। यही वह कारण था कि उस समय लोग मन्दिर को परमेश्वर से भी बड़ा देखते थे। क्योंकि वे मन्दिर को एक आड़ के रूप में, और बलिदानों को लोगों को धोखा देने और परमेश्वर को धोखो देने के लिए एक बहाने के रूप में उपयोग करते थे, इसलिए प्रभु यीशु ने लोगों को चेतावनी देने के लिए ऐसा कहा था। …

  आगे, आओ हम पवित्रशास्त्र के इस अंश के इस अन्तिम वाक्य पर एक नज़र डालें: "मनुष्य का पुत्र तो सब्त के दिन का भी प्रभु है।" क्या इस वाक्य का कोई व्यावहारिक पक्ष है? क्या तुम लोग इसके व्यावहारिक पक्ष को देख सकते हो? हर एक बात जो परमेश्वर कहता है उसके हृदय से आती है, तो उसने ऐसा क्यों कहा? तुम लोग इसे कैसे समझते हो? हो सकता है तुम लोग इस वाक्य का अर्थ अब समझते हों, परन्तु उस समय बहुत से लोग नही समझते थे क्योंकि मनुष्यजाति बस उसी समय व्यवस्था के युग से बाहर निकली थी। उनके लिए, सब्त से बाहर निकलना एक कठिन बात थी, और सच्चा सब्त क्या होता है इसे समझने का तो ज़िक्र ही मत करो।

  यह वाक्य "मनुष्य का पुत्र तो सब्त के दिन का भी प्रभु है" लोगों को बताता है कि परमेश्वर का सब कुछ अभौतिक है, और यद्यपि परमेश्वर तुम्हारी सारी भौतिक आवश्यकताओं को प्रदान कर सकता है, फिर भी जब एक बार तुम्हारी भौतिक आवश्यकताएँ पूरी कर दी जाती हैं, तो क्या इन चीज़ों से सन्तुष्टि तुम्हारी सत्य की खोज का स्थान ले सकती है? यह निःसन्देह संभव नहीं है! परमेश्वर का स्वभाव और उसका स्वरूप जिसके बारे में हमने संगति की है दोनों सत्य हैं। इसे भौतिक वस्तुओं की भारी कीमत के साथ भी नहीं तौला जा सकता है और न ही इसके मूल्य की पैसों में मात्रा निर्धारित की जा सकती है, क्योंकि यह कोई भौतिक वस्तु नहीं है, और यह हर एक व्यक्ति के हृदय की आवश्यकताओं की आपूर्ति करता है। प्रत्येक मनुष्य के लिए, इन अमूर्त सच्चाईयों का मूल्य ऐसी किसी भी भौतिक चीज़ से बढ़कर होना चाहिए जिसे तुम अच्छा समझते हो, ठीक है न? यह कथन कुछ ऐसा है जिस पर तुम लोगों को टिके रहने की आवश्यकता है। जो कुछ मैंने कहा है उसका मुख्य बिन्दु यह है कि परमेश्वर का स्वरूप और उसका सब कुछ हर एक व्यक्ति के लिए अति महत्वपूर्ण चीज़ें हैं और इन्हें किसी भौतिक पदार्थ के द्वारा बदला नहीं जा सकता है। मैं तुम्हें एक उदाहरण दूँगाः जब तुम्हें भूख लगती है, तो तुम्हें भोजन की आवश्यकता होती है। यह भोजन सापेक्ष रूप से अच्छा हो सकता है, या सापेक्ष रूप से कमी वाला हो सकता है, किन्तु जब तुम अपना पेट भर लेते हो, तो भूखे होने का वह अप्रिय एहसास अब और नहीं होगा—वह चला जाएगा। तुम वहाँ आराम से बैठ सकते हो, और तुम्हारा शरीर आराम में होगा। लोगों की भूख का भोजन से समाधान किया जा सकता है, किन्तु जब तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, और तुम्हें यह एहसास होता है कि तुम्हें उसके बारे में कोई समझ नहीं है? तो तुम अपने हृदय के खालीपन का समाधान कैसे करोगे? क्या इसका समाधान भोजन से किया जा सकता है? या जब तुम परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हो और उसकी इच्छा तुम्हारी समझ में नहीं आती है, तो तुम अपने हृदय की उस भूख को मिटाने के लिए किस चीज़ का उपयोग कर सकते हो? परमेश्वर के माध्यम से उद्धार के तुम्हारे अनुभव की प्रक्रिया में, अपने स्वभाव में किसी परिवर्तन की खोज करने के दौरान, यदि तुम उसकी इच्छा को नहीं समझते हो या यह नहीं जानते हो कि सत्य क्या है, और यदि तुम परमेश्वर के स्वभाव को नहीं समझते हो, तो क्या तुम बहुत व्याकुलता महसूस नहीं करते हो? क्या तुम अपने हृदय में एक बड़ी भूख और प्यास महसूस नहीं करते हो? क्या ये एहसास तुम्हें तुम्हारे हृदय में शांति महसूस करने से रोकते नहीं हैं? तो कैसे तुम अपने हृदय की उस भूख की क्षतिपूर्ति कर सकते हो—क्या इसका समाधान करने का कोई तरीका है? कुछ लोग खरीददारी करने के लिए बाज़ार चले जाते हैं, कुछ लोग भरोसा करने के लिए मित्रों को ढूँढ़ लेते हैं, कुछ लोग जी भरकर सोते हैं, अन्य लोग परमेश्वर के वचनों को और अधिक पढ़ते हैं, या अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए कठिन मेहनत और अधिक प्रयास व्यय करते हैं। क्या ये चीज़े तुम्हारी वास्तविक कठिनाईयों का समाधान कर सकती हैं? तुम लोगों में से सभी इस प्रकार के अभ्यासों को पूर्णत: समझ लो। जब तुम निर्बलता महसूस करते हो, जब तुम परमेश्वर से प्रबुद्धता पाने की दृढ़ इच्छा महसूस करते हो ताकि वह तुम्हें उसकी सच्चाई और उसकी इच्छा की वास्तविकता को जानने की अनुमति दे सके, तो तुम्हें सबसे ज़्यादा किसकी आवश्यकता होती है? तुम्हें जिसकी आवश्यकता होती है वह भरपेट आहार नहीं है, और यह कुछ भले वचन नहीं हैं। उससे बढ़कर, यह देह का क्षणिक आराम और देह की सन्तुष्टि नहीं है—तुम्हें जिसकी आवश्यक है वह है कि परमेश्वर तुम्हें सीधे और स्पष्ट रूप से बताए कि तुम्हें क्या करना चाहिए और तुम्हें इसे कैसे करना करना चाहिए, और तुम्हें स्पष्ट रूप से बताए कि सत्य क्या है। तुम्हारे द्वारा इसे समझ लेने के बाद, भले ही यह थोड़ा सा ही क्यों ना हो, क्या तुम एक अच्छा भोजन कर लेने की तुलना में अपने हृदय में अधिक सन्तुष्टि महसूस नहीं करते हो? जब तुम्हारा हृदय सन्तुष्ट होता है, तो क्या तुम्हारा हृदय, तुम्हारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व सच्ची शांति प्राप्त नहीं करता है? इस दृष्टान्त और विश्लेषण के द्वारा, क्या तुम लोगों को अब समझ में आया कि क्यों मैं तुम लोगों के साथ इस वाक्य को साझा करना चाहता था कि, "मनुष्य का पुत्र तो सब्त के दिन का भी प्रभु है"? इसका वह अर्थ है जो परमेश्वर से आता है, जो उसका स्वरूप है, और उसका सब कुछ किसी भी अन्य चीज़ से बढ़कर है, जिसमें वह चीज़ या वह व्यक्ति भी शामिल है जिस पर तुमने किसी समय विश्वास किया था और जिसे तुमने सबसे अधिक सँजोया था। अर्थात्, यदि मनुष्य परमेश्वर के मुँह के वचन प्राप्त नहीं कर सकते हैं या वे उसकी इच्छा को नहीं समझते हैं, तो वे शांति प्राप्त नहीं कर सकते हैं। अपने भविष्य के अनुभवों में, तुम लोग समझोगे कि मैं क्यों चाहता था कि आज तुम लोग इस अंश को देखो—यह बहुत महत्वपूर्ण है। सब कुछ जो परमेश्वर करता है वह सत्य और जीवन है। मनुष्य-जाति के लिए सत्य कोई ऐसी चीज़ है जिसकी उनके जीवन में कमी नहीं हो सकती है, जिसके बिना वे कभी कुछ नहीं कर सकते हैं; तुम ऐसा भी कह सकते हो कि यह सबसे बड़ी चीज़ है। यद्यपि तुम उसे देख या उसे छू नहीं सकते हो, फिर भी तुम्हारे लिए उसके महत्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती है; यही वह एकमात्र चीज़ है जो तुम्हारे हृदय में शांति ला सकती है।

स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया

यीशु की कहानी—बाइबल की कथाओं की व्याख्या—व्याख्या: परमेश्वर क्या है


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